________________
२००
महीपाध्याय विनयसागर
अर्थात् निस्सारधान्य के समान इनका जीवन निःसार होता है। २. बकुश - व्रतों का पालन करते हुए भी शरीर और उपकरणों पर ममत्व होने के
कारण उन्हीं को संस्कारित करने वाला, सिद्धि तथा यश-प्रतिष्ठा का
अभिलाषी, सुखशील तथा शबल अतिचार दोषों से युक्त । ३. कुशील - इसके दो भेद हैं :-प्रतिसेवना कुशील और कषायकुशील।
प्रतिसेवना-इन्द्रियों का वशवर्ती होने से उत्तर गुणों की विराधनामूलक प्रबृत्ति करने वाला। कषाय-तीव्र कषाय से रहित होकर भी मन्द कषायों के वशीभूत हो
जाने वाला। ४. निर्ग्रन्थ - सर्वज्ञता न होने पर भी जिसमें रागादि का अत्यन्त अभाव हो और
अन्तर्मुहूर्त के बाद ही सर्वज्ञता प्रकट होने वाली हो। ५. स्नातक - जिसमें सर्वज्ञता प्रकट हो गई हो।
उक्त पाँच भेदों में प्रारम्भ के तीन भेद व्यावहारिक श्रमण के बोधक हैं और शेष दो तात्त्विक श्रमण के। अतः अन्तर्दृष्टि से, आत्मिक विशुद्धि की दृष्टि से निर्ग्रन्थ एवं स्नातक भेद ही उपादेय हैं। श्रमण का धर्म :
श्रमण पूर्णतः आस्रवादि का प्रत्याख्यान करता है अतः वह सर्व विरति कहलाता है। उसके मुख्य-मुख्य धर्म हैं :
१. महाव्रत–पाँच महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का उनकी पच्चीस भावनाओं के साथ सम्यक्तया त्रिकरण-त्रियोग के साथ पालन करता है। फलतः वह अनास्रवी, अनारंभी और अनासक्त हो जाता है और संवरोन्मुखी बनकर निर्जरक बनता जाता है।
२. प्रतिक्रमण -उपयोग/विवेक पूर्वक महाव्रतों का पालन करते हुए कदाचित् अतिचार/ दोष लग जाते हैं, उनपर तत्काल या प्रातः-सायं विचार कर प्रायश्चित्त करना । अर्थात् उभयकाल प्रतिक्रमण के माध्यम से उन दोषों की शुद्धि करना।
३. सामायिक प्रतिक्षण समभाव; उपशम, शान्ति, क्षमा-भाव से निर्वैर एवं निष्क्रोध रहते हुए संयम गुणों की वृद्धि करना/कषायादि अन्तर्शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना।
४. चारित्र --सामायिक और छेदोपस्थापन में रहते हुए, अप्रमत्त होकर परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म सम्पराय की प्रगति करते हुए यथाख्यात की प्राप्ति करने का प्रयत्न करना।
. ५. इन्द्रिय-दमन–पाँचों इन्द्रियों और उसके २३ विषयों/विकारों पर विजय प्राप्त करना।
६. व्यवहार—गीतार्थ बनकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार व्यवहार/व्यवस्था करना और निर्मायी तथा निश्छल आचरण करना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org