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________________ ४. अनगार ५. मुनि ६. साधु ९. मुमुक्षु १० ऋषि ११. व्रती १२. संयमी श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ जिसने घर वार का त्याग कर दिया है । - राग-द्वेष, ईष्या, निन्दा आदि से रहित होता है । अथवा मौन रहकर स्वाध्याय, ध्यान एवं संयम साधना करता है । — ७. माहन हिंसा से निवृत्त होता है अर्थात् त्रिकरण योग से पूर्णतः अहिंसक होता है । ८. वाचंयम- वाणी (भाषा समिति, वचनगुप्ति) पर नियंत्रण रखता है । संसार- भवसमुद्र से मुक्त होने की इच्छा रखता है । आत्म-तत्त्व का ज्ञाता होता है अथवा आत्मदर्शी होता है । पांच महाव्रतों एवं ज्ञानाचारादि पाँच आचारों का पालक होता है । सत्रह विध संयम का विशुद्ध रूप से पालन करता है । - - 1 Jain Education International - श्रेष्ठतम क्षमादि विशिष्ट गुणों से अपनी आत्मा को भावित करता है । अथवा सम्यग् दर्शनादि त्रिरत्नों के माध्यम से परमपद की साधना करता है । नामधारी श्रमण : जैन परम्परा में जिस प्रकार निर्ग्रन्थ को श्रमण शब्द से विभूषित किया गया है उसी प्रकार वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में भी ऋषि-मुनियों के लिये श्रमण शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है । प्रवचनसारोद्धार में उल्लेख मिलता है : निर्ग्रन्थ (जैन साधु), शाक्य ( बौद्ध साधु), तापस (जटाधारी वैदिक ऋषि) गैरुक (लाल वस्त्रधारी संन्यासी) और आजीवक ( गोशालक के अनुयायी साधु) भी श्रमण शब्द से सम्बोधित होते हैं | किन्तु, जैन श्रमण और अन्य श्रमणों में महदन्तर है । जैन मुनि का मन वीतराग वाणी से वासित होता है, यथार्थतः आत्मलक्षी होकर उत्कृष्ट संयम साधना में लीन रहता है, रागादि कषायों का पूर्णतः निरोध करने के लिये सतत प्रयत्नशील है और अपनत्व का त्याग कर देता है, जो अन्य नामधारी श्रमणों में पूर्णतः प्राप्त नहीं होता है । अतः जैनेन्द्र पर्युपासकों के लिये निर्ग्रन्थ श्रमण ही अभीष्ट और आराध्य है, अन्य श्रमण नहीं । १९९ श्रमण के भेद : नामधारी श्रमणों की तरह जैन निर्ग्रन्थ-श्रमणों के प्रतिपादित पाँच भेदों में दो भेद भी वैसे ही हैं, अर्थात् सद्गुरु तो दूर, गुरु की कोटि में भी नहीं आते हैं, वे केवल वेषधारी श्रमण हैं । तत्त्वार्थसूत्र में जो पाँच भेद बताये हैं, वे निम्न हैं : ३. कुशील, २. बकुश, ५. स्नातक · इन पाँचों का सामान्य अर्थ क्रमशः इस प्रकार है : १. पुलाक १. पुलाक, ४. निर्ग्रन्थ, - मूल गुणों में अपूर्णता और उत्तर गुणों का सम्यक्तया पालन नहीं करते हुए भी आगम- मर्यादा से विचलित नहीं होने वाला पुलाक/पयाल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212034
Book TitleShraman Mahavir Tirth ka Pramukh Stambh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherZ_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf
Publication Year1994
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain Sangh
File Size518 KB
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