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चतुर्थ खण्ड / १५०
श्रमण अधिक तेज न चले' क्योंकि अधिक तेज चलनेवाला छोटे-छोटे जीवों को कैसे बचा सकता है ?
विहार का उद्देश्य
प्रत्येक ग्राम-नगर में आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति का सन्मार्ग बताना धर्म-जागरणा करना, कराना तथा स्वाध्याय करना आदि ।
विहार की सीमा
अकारण अर्ध योजन से अधिक विहार करने का निषेध है । यह एक दिन में विहार करने की सीमा का निर्धारण है।
प्रार्य क्षेत्रों की चारों दिशाओं में कहाँ तक विहार करने का विधान है, यह भी स्पष्ट है।
दवदवस्स चरई पमत्ते य अभिक्खणं ।
उल्लंघणे य चंडे य पावससणे त्ति वच्चई ।। -उत्त. अ. १७, गा. ८ २. बुद्धे परिनिब्बुए चरे गामंगए नगरे व संजए ।
संतिमग्गं च वहए समयं गोयम ! मा पमायए ।। --उत्त. अ. १०, गा. ३६ ३. प.-'भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं
वयासी-कइविधा णं भते ! जागरिया पन्नत्ता ? उ.-गोयमा ! तिविहा जागरिया पन्नत्ता तंजहा
१. बुद्ध जागरिया, २. अबुद्ध जागरिया, ३. सुदक्खुजागरिया। प.-से केणट्रेणं भंते ! एवं वच्चति 'तिविहा जागरिया पन्नत्ता, तंजहा
१. बुद्ध जागरिया, २. अबुद्ध जागरिया, ३. सुदक्खुजागरिया' ? उ.-गोयमा ! जे इमे परहंता भगवंतो उप्पन्ननाण-दसणधरा जहा खंदए [ स. २, उ.
१, सु. ११ ] जाव सवण्णू सव्वदरिसी, एए णं बुद्धा बुद्ध जागरियं जागरंति । जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिता भासासमिता जाव गुत्तबंभचारी, एए णं अबुद्धा प्रबुद्धजागरियं जागरंति । जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा जाव विहरंति एते णं सुदक्खु जागरियं जागरंति । से तेणटुणं गोयमा ! एवं बच्चति ‘ति विहा जागरिया जाव सुदक्खुजागरिया' -भगवती स. १२, उ. १, सु. २५ जे भिक्ख चाउकाल-पोरिसिं सज्झायं न करेइ न करतं वा साइज्जइ ।
-निशीथ उ. १९, सु. १३ पढमं पोरिसि सज्झायं बितियं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीइ सज्झायं ।। पढमं पोरिसि सज्झायं बितियं झाणं झियायई।
तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ।। -उत्त. अ. २६, गा. १२, १८ ४. परमद्धजोयणानो विहारं विहरए मुणी ॥ --उत्त. अ. २६, गा. ३५
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