________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म सुस्वरनाम, आदेयनाम, यशोकीर्तिनाम, तीर्थंकर नाम ये बंध हैं शेष रह जाय जो आयुव्य पूरी होते न रखयें तो केवली समुद्धात्
और इनसे छूटे बिना मोक्ष नहीं है। यह अवश्य है कि इन्हें निर्जरित करते हैं - ऐसा व्यवहार-कथन है, सब स्वतः होता है, प्रद्गतकरने के लिए उस पुण्यात्मा को कुछ करना नहीं पड़ता, उदय में कर्म स्वत: प्रद्गल-रूप, स्वशादि से परिणामित होते हैं। आती हैं, वेदन होता है और खिर जाती है। आत्म-स्वरूप प्रकट
तब प्रश्न है कि पुण्य उपार्जन करे या नहीं? पुण्य भी, सम्यक्त्व करने में, आत्मानन्द के भोग में ये आड़े आती।
का स्पर्श होने के पूर्व तक जीव करता ही है। कर्म चेतना और उदाहरण, सिर पर अंगारे-रूप अनंत वेदना (असातावेदनीय कर्मफल चेतना में ही रहता है। ज्ञान चेतना जगने पर सम्यक्त्व होने का अग्रतम रूप) होते हुए भी अनंत आत्मसाधना, केवलज्ञान पर, सम्यक्त्व-दशा में 'करना-करना' (कर्तृव्य-भोत्कृव्य) श्रद्धा केवलदर्शन और मोक्ष होता है। पुण्य या पाप की अघाती कर्म में पूर्णतः हेम हो जाता है। श्रद्धा में मात्र 'होना' जो 'हूँ वह जो प्रकृतियां कहां बाधा दे रहा है।
जाऊँ, धातीकर्म आत्मा के स्वरूप को आवरित करते हैं, पूर्जानन्द बसा क्या हूँ ? देहाति नोकर्म से परे, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म में बाधा पहुँचाते हैं। उनका का अंश मात्र भी शेष रहे तो केवल से परे और रागदि (कषायादि) भाव कर्म से भी परे-शुद्ध, बुद्धज्ञान-केवल दर्शन अटका रहता है। अधाती कर्म इस अर्थ में मुक्त अनंत ज्ञानादि-गुजसम्पन्न, मात्र ज्ञाता-दुष्ट भावभातां शद्धात्मा अधाती हैं कि स्वरूप का धात नहीं करते, स्वरूप चरण, अतीन्द्रिय- हूँ - वह जो जाऊँ। वही हो जाऊँ, मात्र होना है करना कुछ नहीं है। आनन्द, सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता में बाधक नहीं होते।
केवल होना है। यह पूर्ण श्रद्धा-यहीं पूर्ण प्रतीति सतत बनी रहना है धाती कर्मों में सबसे विकराल मोहनीय हैं। (दर्शन) सम्यक्त्व है। तब फिर वह न अशुभ में प्रवृत्त होना चाहेगा, न शुभ मिथ्यात्वमोहनीय तो आत्मस्वरूप का ज्ञान और मान ही नहीं देता
में। प्रवृत्ति नहीं मात्र निवृत्ति....निवृत्ति...निवृत्ति। प्रवृत्ति भी निवृत्ति और चारिममोहनीय वीतरगता (आत्मा का निजगण) प्रकट नहीं हतु। होने देता। एक समय मे ७० कोटाकोटि सागरायम बंध करवा अनन्त पुमअय उपार्जन पहले कर लिया तभी तो पर हम सकताहै। कितना भारी-भरकम? पहाड़-जैसा। पर सम्यक्तत्व की दुर्लभ मनुष्य-जन्म(मनुव्यता), पंचोन्द्रिय पूर्णता, उच्चमोत्र, एक सुरंग और सम्पक ज्ञान का एक विस्फोट, क्षणमात्र में उस उच्चनाम, उच्चकुल जिसमें महावीर के वीतराग-मार्ग, मोक्षमार्ग पहाड़ को उड़ा देता है। इसे भोगना ही पड़े, ऐसा नहीं है। आत्म- की आराधना का सुअवसर, अर्थात् जिनेश्वर भगवन्तों के गुणचिन्तन पुरुषार्थ से, ज्ञान से छाती कर्म ट जाते हैं।
का अवसर, सदगुरू भगवन्तों से निश्रित जिनवाणी, आत्मा को परन्तु कितना ही पुरुषार्थ कर लें, पर्णज्ञानी अपना अनन्त
कर्ममल से हटाने-धोकर शुद्ध करने वाली वाणी को भी सुलभताआत्मवीर्य लगाएँ तब भी अधाती कर्मबंध अड वर्जित सातावदेनीय दुर्लभ से दुर्लभतर वस्तुएँ मिल गई। किससे मिली अनन्त पुण्य. उच्चगोत्र लगायत तीर्थकर नाम प्रकति का (पर्व) क्षय नहीं कर सातिश्य पुण्य से मिली। बुद्धि भी मिली, हिताहित का ज्ञेय-हेयसकते। भोगे छूटते है। प्रभु तीर्थंकर अरिष्टनेमि के सानिध्य में दीक्षा
उपादेय को जानने, भेद करने, उपादेयत की आराधना करने की लेकर एक ही दिन में मुनि गजसुकुमाल के वत ज्ञ३नी केवलदशई
शक्ति-बुद्धि अर्थात् ब्राह्म अनुकूलताएँ भी मिल गई। किससे होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। पर वे तीर्थकर चाहे (चाह तो
मिली अनन्त पुण्य, सातिशय पुण्य से मिली। बुद्धि भी मिली, रहती ही नहीं) तो भी सिद्धशिला पर, आयव्यकर्म आदि चारों
हिताहित का ज्ञेय-हेय-उपादेय को जानने, भेद करने, उपादेयत की आघाती कर्म भोगे बिना नहीं जा सकते।
आराधना करने की शक्ति-बुद्धि अर्थात् ब्राह्म अनुकूलताएँ भी
मिल गई। श्रद्धा और संयम का पुरुषार्थ अति-अति, महान् दुर्लभतम (द्रव्य) मुक्तावस्था के बाधक हुए। स्वरूपानंद में कोई
है पर उन्हें सुलभ करने की अनुकूल सामग्री तो मिल गई। बाधा नहीं देते यह निश्चित है। इसीलिए इन्हें अघाती कहा। आयुव्य स्वतः पूरा हो जाता है। उसके सात ही नाम, गोम, वेदनीय भी पूरे
इतनी वियुलता गई कि (द्रषम) काल और इस (मरन) क्षेय हो जाते हैं। ये सब स्वत: पूरे होते हैं। सातावेदनीय कभी अधिक
में भी धर्मध्यान की उत्कृष्टम दशा (आठवें में प्रवेश की पूर्व स्थिति) लाने की सुलभता मिल गई।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org