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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - उनका बंध होना भी निरंतर है, परन्तु क्या वह सम्यक ज्ञान सम्यक्दर्शनी दूसरे रूप में आचार्य उमास्वाति ने १६ बोल दिए है, सम्यक्त्वी इन शुभाशुभ प्रवृत्तियों (अशुभ और शुभ उपयोग) में जाना- दर्शन विशुद्धि से लगायत प्रवचन वत्सलता तक किसी किन्ही रमणकरना-ठहरना चाहता है तो उत्तर होगा-नहीं।
बातों की साधना (शुभतम भाव से) करता है तो तीर्थकर प्रकृति सम्यक्त्वी के मिथ्यात्वनामाकर्म की निरन्तर निर्जरा है और का बध करता है। (अध्याय ६ का २३१) शुद्धोयोगी को, शुद्धात्मस्वरूप का सकयं हो जाने से अवशिष्ट टीकाकार श्री उपाध्याय श्री केवल मुनि ने धर्मचिन्तन, छाती का भी नाश करता है तब कषायाराग की मन्दता और गुरुवन्दन और उपदेश श्रवण को शुभ क्रिया माना है। शुभ अर्थातत् बुद्धिगत मति श्रुत ज्ञान के कारण स्वतः/सहज ही पुण्यबंध होता उत्कृष्ट/प्रशस्त शुभ जो बंधन का हेतु होता है। है-करता नहीं, भावित्व नहीं, भोत्कृत्व नहीं, ज्ञातादृष्टा होता है।
अन्नादि दान भी शुभ है जिससे शांतावेदनय का बंध होता है, रागादि मात्र को, बंध मात्र को वह हेय कर चुका, हय में आए को
अनुकूल संयाम मिलते है- बाहर में स्वस्थ शरीर सुस्वर आदि, भी वह ज्ञाता दृष्टाभाव से रहकर क्षय करता जाता है।
आज्ञानुवर्ती सन्तानें, प्रिय परिजन, विमुल धन मिलेगा धर्मचिन्तनादि सम्यक्त्वी की दृष्टि में आश्रव और बंध हेम हो जाते हैं, भी शुभ की श्रेणी में है, परन्तुं ये उत्कृष्टम हैं। आत्मा के धर्म संवर-निर्जरा-मोक्ष का ही लक्ष्य होता है और उत्तरोत्तर गुजस्थानों (स्वभाव) का चिन्तन, पूर्णात्मा के गुणों का चिन्तन,पूर्णात्मा के में वह प्रमाद का छोड़ अप्रमन्त अवस्था में धर्मध्यान में जाकर गुणों का चिन्तन, उनके द्वारा बताए मोक्ष-मार्ग का निंतन श्रवण कर्मों की निर्जरा ही करना चाहता है। शुभ तथा अशुभ दोनों से परे करता है। इससे सातिशय पुण्य का बंध होगा। जितना-जितना मात्र शुद्ध उपयोग में निर्जरा होती है। सत्ता में अशुभ कर्मों का उदय उसमें तन्मय होगा, उतना-उतना उत्कृष्ट अर्थात् अनुयाग बंध होने से छाती का बंध भी होता है परन्तु क्षीण-क्षीण करता जाता अधिक और स्थिति बंध कम होगा। बंध का फल आएगा -
तीर्थप्रभु का सानिध्य, उपदेश श्रवण, गुरू का समागम, आत्मचिन्तन सम्यक्त्वी के प्रशस्त शभ भाव होते हैं. बह्म में पर में आदि। ये आत्मा का शुद्धोपयोग में ले जाने के लिए उत्कष्ट भमि प्रवत्ति करना ही नहीं चाहता है। 'कार्य की सरलता से भाव (मन) प्रदान करते है, परन्तु इन्हें (सब बाह्य प्रवृत्तियों को) बध कहा है। की सरलता से, वचन की सरलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति नहीं
चाहे तीर्थंकर-परमात्मा का शुद्धात्म स्वरूपही तड़प में हो। आलंबन करने से शुभनामकम के शरीर का प्रयोग बंध होता है। भगवती
'पर' का ही है और जब तक 'पर' से जुड़ा है, 'स्व' याने स्वात्मा से २१, ८, ३, ९ सरल (शुभ) परिणाम (भावों) से बंध ही होता है। नहीं जुड़ा और इसी कारण निर्जरा और मोक्ष नहीं होता। चौदह
पूर्वधारी चार ज्ञान के धारक मौसम-गजधर भी तीर्थंकर प्रभु सम्यक्त्वी के प्रशस्त शुभ भाव होते हैं, बह्म में, पर में प्रवृत्ति
पारी महावीर को छोड़ते हैं तब केवल ज्ञान होता है। करना ही नहीं चाहता है। 'कार्य की सरलता से भाव (मन) की सरलता से, वचन की सरलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करने से
तीर्थंकर नाम कर्म उत्कृष्ठतम है पर है तो बंधा उसे भोगना शुभनामकम के शरीर का प्रयोग बंध होता है। भगवती २१,८,३.९
पड़ता है। आधाती कर्मेड की यही विशेषता है कि भागने से, वेदन
करने से निर्जरित होते हैं। सरल (शुभ) परिणाम (भावों में बंध ही होता है। सम्यक्त्वी के सक्रय में थोड़ा होता है। जो भावमोक्ष और
अशुद्ध के साथ शुभभावों को भी तत्वार्थ सूत्रकार ने आश्रवट्ठार द्रव्यमोक्ष में स्थित अरिहंत, सिद्ध परमात्मा है. उनकी भक्ति में में लिया है। इनसे बंध माना है।सानावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय लीन होता है। अर्हत भक्ति से लगाकर प्रवचन भक्ति और (धर्म) एक अपक्षा स, हास्य, रात, प्ररुषवद, शुभ आय. शभ नाम और प्रभावता तक के बीस बोलों में से एकाधिक में इतना अधिक
शुभ गोत्र में आठ पुण्य प्रकृतियाँ है। विस्तार की अपेक्षा ये ४२ तत्लीन हो जाता है कि एक 'तू-ही-तु' की रटन हो जाती है। इस
प्रकार की कही गई हैं। इन पुण्य प्रकृतियों का बध से भी आत्मा रसायन से तीर्थकर-कर्म-प्रकृति का बंध होता है। उत्कृष्ट तम ।
को छूटना पड़ता है। फिर चाहे वे उत्कृष्ट रुपवाली हो जा स प्रशस्त-राग से भी नामकर्म की प्रकृति (उत्कृष्टतम तीर्थंकर प्रकृति)
सातवेदनीय, उच्च गोत्र, मनुष्य गति, पंचोन्द्रिय जाति, वज्रऋषभनार का बंध होता है। (ज्ञाताधर्म कथा अध्याय ५ सूत्र ६४)
चसंहनन, समचतुरख संस्थान, तेजस्विता,शुभ विहायोगत, सुभगनाम,
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