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शासन प्रभाविका अमर साधिकाएँ
- देवेन्द्र मुनि शास्त्री
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भगवान महावीर ने केवलज्ञान होने के पश्चात् चतुविध तीर्थ की स्थापना की । साधुओं में गणधर गौतम प्रमुख थे तो साध्वियों में चन्दनबाला मुख्य थीं । किन्तु उनके पश्चात् कौन प्रमुख साध्वियाँ हुईं, इस सम्बन्ध में इतिहास मौन है । यों आर्या चन्दनबाला के पश्चात् आर्या सुव्रता, आर्या धर्मी, आर्य जम्बू की पद्मावती, कमलभाल विजयश्री, जयश्री, कमलावती सुसेणा, वीरमती, अजयसेना इन आठ सासुओं के प्रव्रज्या ग्रहण करने का उल्लेख है और जम्बू की समुद्रश्री, पद्मश्री, पद्यसेना, कनकसेना, नमसेना, कनकवी, रूपक्षी, जयश्री इन आठ पत्नियों के भी आईती दीक्षा लेने का वर्णन है । वीर निर्वाण सं० २० में अवन्ती के राजा पालक ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अवन्तीवर्धन को राज्य तथा लघु पुत्र राष्ट्रवर्धन को युवराज पद पर आसीन कर स्वयं ने आर्य सुधर्मा के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। राष्ट्रवर्धन की पत्नी का नाम धारिणी था । धारिणी के दिव्य रूप पर अवन्तीवर्धन मुग्ध हो गया । अतः धारिणी अर्धरात्रि में ही पुत्र और पति को छोड़कर अपने शील की रक्षा हेतु महल का परित्याग कर चल दी। और कौशांबी की यानशाला में ठहरी हुई साध्वियों के पास पहुँची । उसे संसार से विरक्ति हो चुकी थी। वह सगर्भा थी । किन्तु उसने यह रहस्य साध्वियों को न बताकर साध्वी बनी। कुछ समय के पश्चात् गर्भसूचक स्पष्ट चिह्नों को देखकर साध्वी प्रमुखा ने पूछा तब उसने सही स्थिति बतायी । गर्भकाल पूर्ण होने के पर पुत्र को जन्म दिया और रात्रि के गहन अंधकार में नवजात शिशु को उसके पिता के अभूषणों के साथ कोशांबी नरेश के राजप्रासाद में रख दिया। राजा ने उस शिशु को ले लिया और उसका नाम मणिप्रभ रखा, और पुनः धारिणी प्रायश्चित्त ले आत्मशुद्धि के पथ पर बढ़ गयी । अवन्तीवर्धन को भी जब धारिणी न मिली तो अपने भाई की हत्या से उसे भी विरक्ति हुई । और धारिणी के पुत्र अवन्तीसेन को राज्य दे उसने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। जब मणिप्रभ और अवन्तीसेन ये दोनों भाई युद्ध के मैदान में पहुँचे तब साध्वी धारिणी ने दोनों भाइयों को सत्य तथ्य बनाकर युद्ध का निवारण किया।
वीरनिर्वाण की दूसरी-तीसरी सदी में महामन्त्री शकडाल की पुत्रियाँ और आर्य स्थूलभद्र की बहनें यक्षा,
यक्षदिन्ना, भूता भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा इन सातों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की थी। वे अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न थीं ।
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क्रमशः एक बार, दो बार यावत् सात बार सुनकर वे कठिन से कठिन विषय को भी याद कर लेती थी । उन्होंने अन्तिम नन्द की राजसभा में अपनी अद्भुत स्मरण शक्ति के चमत्कार से वररुचि जैसे मूर्धन्य विज्ञ के अहं को नष्ट किया था। सातों बहिनों के तथा भाई स्थूलभद्र के प्रब्रजित होने के पश्चात् उनके लघु भ्राता श्रीयक ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की जो अत्यन्त सुकोमल प्रकृति के थे । भूख और प्यास को सहन करने में अक्षम थे । साध्वी यक्षा की प्रबल प्रेरणा से श्रीयक ने उपवास किया। और उसका रात्री में प्राणान्त हो गया जिससे यक्षा ने मुनि की मृत्यु का कारण अपने आपको माना । दुःख, पश्चात्ताप और आत्मग्लानि से अपने आपको दुःखी अनुभव करने लगी।
कई दिनों तक
अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। संघ के अत्यधिक आग्रह पर उसने कहा कि केवलज्ञानी मुझे कह दें कि मैं निर्दोष हूँ तो अन्न-जल ग्रहण करूंगी, अन्यथा नहीं। संघ ने शासनाधिष्ठात्री देवी की आराधना की। देवी की सहायता से आर्या यक्षा महाविदेह क्षेत्र में भगवान श्री सीमन्धरस्वामी की सेवा में पहुँची। भगवान ने उसे निर्दोष बताया और चार अध्ययन प्रदान किये। देवी की सहायता से वह पुनः लौट आयीं। उन्होंने चारों अध्ययन संघ के समक्ष प्रस्तुत किये जो आज चूलिकाओं के रूप में विद्यमान हैं। इन सभी साध्वियों का साध्वी संघ में विशिष्ट स्थान था पर ये प्रवर्तिनी आदि पर रहीं या नहीं इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख नहीं है ।
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