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________________ छव्वासय - षडावश्यक का अपभ्रंश छव्वासय शब्द रूप बना है। षड का छः और विसर्ग का घ तथा क को लोप होने से बना छव्वासय। सामायिक, स्तुति वंदना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग ये षडावश्यक होते हैं। एक जैनी के लिये ये षडावश्यक आवश्यक है। कुदंसण - कुदर्शन का अपभ्रंश कुदंसण है। कु उपसर्ग है। दर्शन का दंसण हो गया। न का जैन साहित्य में ण हो जाता है। नमो का णमो। कुदर्शन अर्थात् मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन। एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पाँच कुदर्शन हैं। कुदंसण का पर्याय तम भी है। आउक्कम - आयु कर्म का अपभ्रंश में आउक्कम होता है। आयु कर्म चार प्रकार के हैं - देवायु, मनुष्यायु, नरकायु और तिर्थश्चायु । देवायु सर्वश्रेष्ठ है। खाइय दंसण - क्षायिक दर्शन का अपभ्रंश में खान दंसण होता है। क्ष का ख, यि में से य का लोप, क का लोप और य श्रुति। दर्शन का दंसण। क्षायिक दर्शन, सम्यग्दर्शन का भेद है। कर्म के क्षय होने से क्षायिक। कर्म का क्षय आचार और विचार से संभव है। विचार के बिना आचार संभव नहीं है। विचार, अगर आचार में नहीं आता है तो वह विचार व्यर्थ है। मनुष्य विचारशील होने से, विचार अधिक करता है। आज के वैज्ञानिक युग में, जहाँ भौतिक उन्नति, अपनी चरम सीमा पर है 'खाइय दंसण' का सर्वाधिक महत्व हैं। जिण - इंद्रियों पर विजय पाने वाला जिण। 'जिण' से बना जैन। आज जैन शब्द एक धर्म-विशेष के अर्थ में संकुचित हो कर रह गया है। वास्तव में जो भी अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करता है, वही जैन है। जैन एक व्यापक शब्द है। जिण शब्द अपने आदिकाल में विशेषण था, पर आज संज्ञा है। जिण (जैन) अब एक धर्म भी है और दर्शन भी। जिण (जैन) धर्म और दर्शन का अनुसरण, व्यक्ति को बहुत ऊँचा उठाकर सुख प्रदान करता है। यह सुख आध्यात्मिक होता है। शारीरिक सुख क्षणिक होता है, इस कारण जैन-धर्म-दर्शन में इसका महत्व नहीं है। तीर्थंकर - तीर्थंकर शब्द का अर्थ है - तीर्थ करने वाला। तीर्थ और अंकर से मिलकर बना तीर्थकर। तीर्थ अर्थात् पवित्र, शुद्ध। जो केवल ज्ञान प्राप्त कर लोगों को तीर्थ (पवित्र, शुद्ध) करे, वह तीर्थंकर। जैन धर्म में चौबिस तीर्थंकर हुए हैं। केवली तो अनेक हुए हैं, पर वे केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गामी हो गये. इसलिये तीर्थंकर नहीं बने। अगर अन्य केवली भी लोगों को तीर्थ बनाते तो वे भी तीर्थंकर कहलाते। वे जैनों के शीर्ष हैं। तीर्थंकरों ने अति-उच्च तपस्या, त्याग कर मानवता को गरिमा प्रदान की है । तीर्थंकरों का त्याग और तपस्या, विश्व में अद्वितीय है। कठोर तपस्या जो यहाँ हैं. वह कहाँ? त्याग का सुख जो तीर्थंकरों ने भोगा है, वह सुख आज तक अन्य कोई नहीं भोग सका। पुण्णपाव - पुण्य और पाप से मिलकर बना पुण्यपाप और अपभ्रंश में पुण्णपाव। जैन दृष्टि से . जीव कल्याण के मार्ग में हितकर कार्य पुण्य और अहितकर कार्य पाप होते हैं। पुण्य और पांप भाव वाचक संज्ञाएँ हैं। जैन धर्म में तो भाव-हिंसा भी पाप है। कुछ प्राचीन प्रतिलिपियों के पुणपाव रूप भी आया है। सुवझाण - शुभ ध्यान का अपभ्रंश में सुवझाण होता है। श का स, भ का लोप और व प्रति, ध्या का झा तथा न का ण। आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल चार ध्यान माने गये हैं। आर्त और रौद्र . (२०८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211980
Book TitleShabda Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Dictionary
File Size410 KB
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