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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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में कहीं पर भी ऐका दृष्टिगोचर नहीं होता। पुनश्च यदि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध होता तो शस्त्रादि के उच्चारण मात्र से ही उच्चारण करने वाले व्यक्ति का मुख कट जाना चाहिए, लेकिन लोक में ऐसा नहीं होता। शब्द से अर्थ की प्रतीति संकेत-सिद्ध है, स्वयं-सिद्ध नहीं।'
यदि कहा जाय कि संकेत के द्वारा व्यक्त होने पर ही नित्य सम्बन्ध शब्दार्थ का प्रकाशक है, तो यह नित्य सम्बन्ध भी व्यक्ताव्यक्त भेद से दो प्रकार का होगा । संकेत के पुरुषाधीन होने के कारण वैरीत्य भी सम्भव है, ऐसी स्थिति में वेदाप्रामाण्य हो जायेगा। इसके अतिरिक्त यह इसलिए भी सम्भव नहीं है कि अर्थ-प्रतीति सर्वदा, सर्वकालिक नहीं होती है । घटादिरूप अर्थों की अनित्यता प्रत्यक्षतः सिद्ध ही है । २
अन्यापोह अथवा अपोह की अवधारणा को जैन दार्शनिक ही अस्वीकार नहीं करते हैं अपितु नैयायिक, मीमांसक, वेदान्ती आदि भी इसका खण्डन करते हैं। इनका कहना है कि निषेधमुख से पदार्थ-प्रतीति सम्भव नहीं है, क्योंकि निषेधार्थक प्रवृत्ति विव्यर्थक से ही सम्भव है, जिसे बौद्ध मत में स्वीकार नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य के अभाव से स्वार्थ (जिस वस्तु का जो अर्थ है) की प्रतीति सम्भव भी नहीं है, क्योंकि “गौ" कहने पर "अगौ" की और “अगौ” कहने पर “गौ" की प्रतीति प्रथमतः होनी चाहिए, वह होती नहीं। फिर भी यह कहना कि गौ कहने पर प्रथमतः अगौ की प्रतीति होती है, उचित नहीं है क्योंकि लोक में ऐसा प्रत्यक्ष रूप में होता नहीं, वरन् गौ कहने पर श्रोता को गौ का ही श्रवण होता है, न कि अगौ का और तदनन्तर गौ रूप अर्थ की ही प्रतीति होती है। इसलिए अन्यापोह शब्द का अर्थ सिद्ध नहीं होता।
अपोह के भेद मानना भी युक्त नहीं है क्योंकि यथार्थ वस्तु में ही नाना विकल्पों की प्रतीति होती है। यदि अभाव में भी भेद मानेंगे तो अपोह वस्तु होने की आपत्ति आयेगी ।
. उपर्युक्त विवेचन से यह सष्ट हो जाता है कि जैन दार्शनिकों को न तो नित्य सम्बन्ध इष्ट है और न ही अनित्य, तथा बौद्धाभिमत अपोह भी स्वीकार्य नहीं है। ऐसी स्थिति में शब्द से अर्थ (वस्तु) का बोध कैसे होगा ? इसके समाधान में जैन दार्शनिकों का कहना है कि शब्द अपनी स्वाभाविक योग्यता और (पुरुषकृत) संकेत से वस्तु का ज्ञान कराने में कारण है। शब्द और अर्थ की सहज स्वाभाविक योग्यता प्रतिपाद्य-प्रतिपादक शक्ति है, जो ज्ञान और ज्ञेय को ज्ञाप्य-ज्ञापक शक्ति के तुल्य है इसलिए योग्यता से अन्य कार्य-कारण भावादि सम्बन्ध सम्भव नहीं हो सकते हैं।
हरिभद्रसूरि का कहना है कि शब्द तथा उसके अर्थ के बीच तादात्म्यादि सम्बन्ध में जो दोष बतलाये गये हैं; वे हमारे मत पर लागू नहीं होते हैं क्योंकि उक्त प्रकार की कल्पना हमें अभीष्ट नहीं है तथा हमारे मतानुसार शब्दों
१. न तादात्म्यं द्वयाभावप्रसंगाद् बुद्धिभेदतः ।
शस्त्रौद्युक्तौ मुखच्छेदादिसंगात् समयस्थितेः॥ -शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६४५. २. विस्तारार्थ द्रष्टव्य-न्यायविनिश्चयविवरणम्, भाग २, पृ० ३२०-२५;
प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ४०४-२७. ३. विस्तारार्थ द्रष्टव्य-पीमांसाश्लोकवातिक, अमोहवाद ; न्यायमंजरी, भाग-२, आह्निक-५, पृ० २७६-७६;
प्रमेयकमल-मार्तण्ड, ३/१०१, पृ० ४३१-४६; प्रमेयरत्नमाला, ३/९७, पृ० २३४-४०. ४. सहजयोग्यता संकेतवशाद्धि शब्दादयः वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ।
-प्रमेयकमलमार्तण्ड, ३.१००;
-प्रमेयरलमाला, ३.६६ ५. प्रमेयकमलमार्तण्ड, ३।१००, पृ०४२८.
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