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व्यावहारिक जीवन में नाम, रूप, स्थापना और प्रतीक
-विश्वनाथ पाठक प्रायः जीवन में प्रयोजन-सिद्धि के लिये बहुत सी काल्पनिक मान्यतायें भी अपरिहार्य बन जाती हैं । नाम, रूप, स्थापना और प्रतीक ऐसी ही विभूतियाँ हैं। यथार्थ न होने पर भी इन असत् मान्यताओं और मूल्यों को अस्वीकार करना कठिन ही नहीं, असंभव भी है। ज्ञानी, मूढ, असाधु, साधु, शिक्षित और अशिक्षित-कोई भी हो, यदि वह समाज में रह कर साँसें लेता है तो इन विभूतियों की अनुल्लंघनीय लक्ष्मण-रेखा के उस पार नहीं जा सकता।
प्रत्येक द्रव्य का एक नाम अवश्य होता है। यह नाम न तो वस्तुनिष्ठ है और न वक्तृनिष्ठ । यदि वह द्रव्य ( नामी ) में रहता तो वहाँ उसकी उपलब्धि अवश्य होती। उच्चारण के पूर्व और पश्चात् अविद्यमान रहने के कारण उसे वस्तुनिष्ठ भी नहीं कह सकते हैं। ध्वनिभिन्न द्रव्य का ध्वनि से तादात्म्य-स्थापन ही नामकरण है। यह तादात्म्य नितान्त कल्पित है, क्योंकि नाम एक वर्णात्मक ध्वनि होने के कारण स्थूल द्रव्य से स्वरूपतः भिन्न होता है। नामी ( द्रव्य ) का दर्शन होता है और नाम का श्रवण । आँख मूंद लेने पर नामी अदृश्य हो जाता है, किन्तु नाम तब भी सुनाई देता है। ईश्वर, जीव आदि सूक्ष्म द्रव्य इन्द्रियातीत, नित्य और अनुत्पाद्य हैं, परन्तु उनके नाम इन्द्रियग्राह्य, अनित्य और प्रयत्नोत्पाद्य हैं। नाम न तो नामी में संयुक्त है और न समवेत । अतः कमल नाम में जिन क, म और ल ध्वनियों का सन्निपात सुनाई देता है, उनकी उपलब्धि कमल द्रव्य के किसी भी भाग में नहीं होती है । नाम और नामी में आर्थिक-अन्विति ध्रुव नहीं है, अतः अधिकांश नाम झूठे होते हैं। आशा देवी का जीवन निराशा में ही बीतता है, गिरिजापति अविवाहित ही मरता है, आलोक के घर में अँधेरा दिखाई देता है, विद्यासागर के मूर्खता की चर्चा घर-घर होती है और कुबेर सड़कों पर भीख माँगता फिरता है । नामी के रहने पर नाम का भी रहना अनिवार्य नहीं है। वनों और गाँवों में असंख्य कीट, पतंग, सरीसृप, तृण, गुल्म, विहंग, वीरुध् और वनस्पतियाँ पड़ी हैं, जिनका अभी तक नामकरण ही नहीं हुआ है। नामी ( द्रव्य ) के अभाव में नाम का भी अभाव हो जाना आवश्यक नहीं है । महात्मा गांधी अब नहीं हैं किन्तु उनका नाम कोई कभी भी ले सकता है । इस प्रकार नाम और नामी में न तो अन्वय है और न व्यतिरेक ही। बालक अनाम ही उत्पन्न होता है। एक बार नाम रख कर उसे पुराने वस्त्र के समान बदला भी जा सकता है। शब्द शासन में प्रतिपादित नाम और नामी ( अर्थ या द्रव्य ) का ज्ञाप्य-ज्ञापक रूप सम्बन्ध भी व्यभिचार दोष से मुक्त नहीं है। काम्बु शब्द संस्कृत में शंख और तमिल में छड़ी का ज्ञापक है और वही एक अशिक्षित मूर्ख की दृष्टि में बिल्कुल निरर्थक है। हिन्दी में फुलकी का अर्थ रोटी है और बँगला में चिनगारो। किसी अन्य प्रदेश में चले जाइये तो उसका कुछ भी अर्थ नहीं समझा जायेगा। हिन्दी और संस्कृत में जो शरीर शब्द देह का वाचक है, वही अरबी में दुष्ट का अर्थ देता है। अन्य स्थानों पर वही निरर्थक भी हो सकता है । अंग्रेजी के बहुत से शब्द हिन्दी में दूसरा अर्थ देते हैं । इस प्रकार एक ही आकृति वाले शब्दों की ज्ञापकता में आकाश और पाताल का अन्तर है। इतना ही नहीं, कभी-कभी
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