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व्यवहारनयकी अभूतार्थताका अभिप्राय
आचार्य कुन्दकुन्दके समयसार में निम्नलिखित गाथा पायी जाती है"ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥११॥"
अर्थ - ( जिन शासन में ) व्यवहार नयको अभूतार्थं और शुद्धनय अर्थात् निश्चयनयको भूतार्थ कहा गया है । जिस जीवने भूतार्थनयरूप शुद्धनय अर्थात् निश्चयनयका अवलम्बन लेकर वस्तुतत्त्वके स्वरूपकी पहिचान कर ली है वह जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है ।
तात्पर्य यह है कि जीवोंको वस्तुतत्त्वके स्वरूपकी पहिचान भूतार्थनयरूप शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय द्वारा ही हो सकती है । अतः इसके लिए प्रत्येक जीवको इस नयका ही अवलम्बन लेना चाहिए ।
इस कथनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिन- शासन में निश्चयनय और व्यवहारनय ऐसे दो भेद नयोंके बतलाये गये हैं । नय प्रमाणका अंशरूप होता है और प्रमाण वचनात्मक और ज्ञानात्मक दो प्रकारका होता है । अतः निश्चय और व्यवहाररूप दोनों प्रकारके नय भी वचनात्मक और ज्ञानात्मकके भेदसे दो-दो प्रकारके सिद्ध होते हैं । वचनका अपने विषयभूत पदार्थ के साथ प्रतिपाद्य - प्रतिपादकसम्बन्ध रहता है । अर्थात् बचन अपने विषयभूत पदार्थका प्रतिपादक होता है और वह पदार्थ उस वचनका प्रतिपाद्य होता है । इसी तरह ज्ञानका अपने विषयभूत पदार्थ के साथ ज्ञाप्य ज्ञापकसम्बन्ध रहता है । अर्थात् ज्ञान अपने विषयभूत पदार्थका ज्ञापक होता है और वह पदार्थ उस ज्ञानका ज्ञाप्य होता है। चूंकि उपर्युक्त गाथामें व्यवहारनयको अभूतार्थनय कहा गया है, अतः इसका प्रतिपाद्य अथवा प्राप्य पदार्थ भी अभूतार्थ होना चाहिए और चूँकि उपयुक्त गाथा में ही निश्चयनयको भूतार्थनय कहा गया है अतः इसका प्रतिपाद्य अथवा ज्ञाप्य पदार्थ भी भूतार्थ होना चाहिए । यही कारण है कि उपयुक्त गाथाको टीकामें आचार्य श्रीअमृतचन्द्रने लिखा है कि"व्यवहारयो हि सर्व एव अभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति । शुद्धनय एक एव भूतार्थत्वाद्भूतमर्थं प्रद्योतयति ।"
अर्थ - सम्पूर्ण व्यवहारनय अभूतार्थं होनेके कारण अभूत पदार्थका प्रद्योत करता है तथा शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय एक ही ऐसा नय है कि वह भूतार्थं होनेसे भूत पदार्थका प्रद्योत करता है
इस कथनका निचोड़ यह है कि वचनरूप व्यवहारनय अभूतार्थं होनेसे अपने विषयभूत अभूत अर्थका ही प्रतिपादन करता है और ज्ञानरूप व्यवहारनय भी अभूतार्थं होनेसे अपने विषयभूत अभूत अर्थका ही ज्ञापन करता है । इसी प्रकार वचनरूप निश्चयनय भूतार्थ होनेसे अपने विषयभूत भूत अर्थका ही प्रतिपादन करता है और ज्ञानरूप निश्चयनय भी भूतार्थ होनेसे अपने विषयभूत भूत अर्थका ही ज्ञापन करता है । चूँकि उपर्युक्त गाथा अनुसार जीवको सम्यग्दृष्टि बननेके लिए वस्तुतत्त्वके स्वरूपको पहिचान होना आवश्यक है। तथा वस्तुतत्त्व स्वरूपकी पहिचान उसकी भूतार्थताकी पहिचानके ऊपर निर्भर है और इस भूतार्थताकी पहिचान भी उपयुक्त गाथाकी टीकाके उपरिनिर्दिष्ट उद्धरणके अनुसार भूतार्थ कहे जानेवाले निश्चयनयके द्वारा ही हो सकती है । अतः आचार्य श्री कुन्दकुन्दने जीवको सम्यग्दृष्टि बननेके लिए भूतार्थ कहे जानेवाले निश्चयनयका अवलम्बन ग्रहण करनेका उपदेश दिया है ।
अब यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि पदार्थकी भूतार्थता क्या वस्तु है, जिसके आधारपर
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