________________ P300-00000 0 0000003 1690saap G00000 DOODP00 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / उपसंहार-इस प्रकार भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रन्थों तथा बना देता है। व्यक्ति समाज का एक अभिन्न घटक है। निश्चित ही मुख्यतः जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से प्राचीन शिक्षा प्रणाली का जो अगर उसके व्यक्तित्व का, शारीरिक, मानसिक, नैतिक और Magar स्वरूप उपलब्ध होता है, उससे यह पता चलता है कि प्राचीन काल आध्यात्मिक विकास होगा, उसमें तेजस्विता आयेगी। तो समाज 00000 में शिक्षा या ज्ञान-प्राप्ति का उद्देश्य व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास / स्वयं ही प्रगति और उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा। अतः करना था। शरीर एवं इन्द्रियों का विकास करना मात्र शिक्षा का व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु जो मानदंड, नियम, योग्यता, पात्रता उद्देश्य नहीं है, यह तो पशुओं में भी होता है, पक्षियों और तथा पद्धतियाँ प्राचीन समय में स्वीकृत या प्रचलित थीं, उनके कीट-पतंगों में भी होता है। मनुष्य के भीतर तो असीम शक्तियों के अध्ययन/अनुशीलन के आधार पर आज की शिक्षा प्रणाली पर 488 विकास की संभावना छिपी है, शिक्षा के द्वारा उन शक्तियों को व्यापक चिन्तन/मनन अपेक्षित है, परिवर्तन और परिष्कार भी Kees-जागृत एवं प्रकट किया जाता है। वांछनीय है। प्राचीन भारतीय जैन शिक्षा प्रणाली भारत की जलवायु तथा मानसिकता के अनुकूल थी, अतः उन सन्दर्भो के साथ आज पत्थर या मिट्टी में मूर्ति बनने की योग्यता तो है ही, कुशल की शिक्षा प्रणाली पर आवश्यक चिन्तन होना अपेक्षित है। PHOTS शिल्पकार उसे सुन्दर आकृति देकर उस क्षमता को प्रकट कर देता है। गुरु को इसी लिए कुम्भकार शिल्पकार बताया है जो विद्यार्थी पता : दिवाकर प्रकाशन 206900PP की सुप्त/निद्रित आत्मा को जागृत कर तेजस्वी और शक्ति सम्पन्न ए-७, अवागढ हाउस एम. जी. रोड, आगरा-२८२00२ Sa600mm 2. 1. विस्तार के लिए देखें-१. प्रवचनसारोद्वार द्वार-२३८, गाथा 1356-58 2. धर्मसंग्रह अधिकार-१,गाथा-२० रघुवंश-३/२८/२९ (कालिदास ग्रंथावली) 3. कौटिलीय अर्थशास्त्र-प्रकरण २१-अ-४. 4. आदिपुराण (महापुराण)-१६/१०४ तथा त्रिषष्टि. 1/2 एवं आवश्यकचूर्णि 5. कुमार सातिरेग अट्ठवास सयं जायं अम्मापियरो कलायरियस्स उवणेति' ...'भगवती सूत्र 11/11, ज्ञातासूत्र 1/1, अन्तकृद्दशासूत्र-३/१ गुणचन्द्र का महावीर चरित्र तथा त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरितं देखें। 7. पढम दसाड-अट्ठवरिसोवरि, नवम-दसमेसु दीक्खा-निशीथचूर्णि उद्देशक-११ 8. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-५ 9. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-१२ 10. ललित विस्तर, पृष्ठ-१४३ 11. चुल्लवग्ग-१-७-२, डा. हरीन्द्रभूषण जैन-प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति 12. चत्तारि बायणिज्जा-विणीते, अविगतिपडिबद्धे, विओसितपाहडे अमाई स्थानांग-४/सूत्र 453 13. तओ अवायणिज्जा-दुट्टे, मढे. वग्गहिए-स्थानांग-३ 14. उत्तराध्ययन-१/३७-३९ 15. (1) अह अट्ठहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे॥ (2) नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वच्चई॥ -उत्तराध्ययन-११/४-५ 16. आदि पुराण (भाग-१) 140-148 तथा आदि पुराण (खण्ड-३) 38/109-1118 17. उत्तराध्ययन-११/३ 18. आदि पुराण-भाग-१ 19. सेलघण-कुडग-चालणि परिपूणग हंस-महिस-मेसेय-मरुग-जलुग-विराली। 20. आणा णिदेस करे, गरूणमुववाय कारए। इंगियागार संपन्ने से विणीए त्ति बुच्चइ।। -उत्तरा. 1/2 21. एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो-दशवै. 9/2/2 22. उत्तरा. 1/9 23. उत्तरा. 114 24. भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा। -आचारांग-२/३/३ 25. अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं, गुरुभक्ति भावसुस्सूसाविणओ एस वियाहिओ -उत्त. 30/32 26. वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणवं, पियं करे पियं वाई से सिक्खं लक्ष्मरिहइ उत्त.-११/१४ 27. उत्तरा.-१/१७ 28. छांदोग्य उपनिषद् 7/8/1 29. उत्तरा.-१/२२-२३ 30. उत्तराध्ययन-२२-२३ 31. देखिए भगवती सूत्र के प्रसंग 32. सूत्रकृतांग-२/७/३७ 33. उत्तराध्ययन-११/१४ 34. उत्तरा.-११/१०-१४ 35. दशवै. ९/२/१४-१५,जिनदास चूर्णि पू. 314, दसवेआलियं, पृ. 439 36. दशवैकालिक-९/३/१३ 37. दशवै. 1/2/31 जिनदासचूर्णि पू. 341, दसवैआलिय-पृ. 439 38. देखें-त्रिषष्टिशलाका-१/२, आवश्यकचूर्णि तथा महापुराण पर्व-१६ 39. इसी के साथ-भगवती 31, ज्ञातासूत्र-१/२, अन्तकृद्दशा सूत्र-३/१ आदि में कला शिक्षण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। 40. दशवैकालिक-९/४ 41. स्थानांग सूत्र-५/३ तुक SOSORRESPersofitegalpes