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________________ HOJP005065200000 10000000000000000000000000 | अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ५४३100008 5 इसी सिलसिले में कैनेथ वाउल्डींग का एक बहुत सुन्दर वाक्य करने का ही मुख्य उद्देश्य रह गया है। आज की शिक्षा वास्तव में एकांगी है। विद्यार्थी के सामने भी बहुत सीमित-छोटा सा लक्ष्य When we love, we increase love with others रहता है, और गुरु के सामने केवल अपनी आजीविका (नौकरी) and in ourselves as teacher increases knowledge का ही ध्येय रहता है, इसलिए शिक्षा फलदायिनी नहीं होती और न within his student and himself by the simple act ही जीवन का विकास कर पाती है। किन्तु प्राचीनकाल के संदर्भो से of the teach us. यह पता चलता है कि कला शिक्षण का उद्देश्य आजीविकोपार्जन जब हम प्रेम करते हैं, तब प्रेम को बढ़ाते हैं, औरों में और करना मात्र नहीं था, किन्तु छात्र के व्यक्तित्व का संतुलित समग्र अपने में, जैसे कि एक शिक्षक ज्ञान को बढ़ाता है, विद्यार्थियों में । विकास करना उद्देश्य था। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति और अपने में सिखाने की एक सादी सी क्रिया के द्वारा। समाज में सम्मानपूर्ण जीवन जी सके और साथ ही समाज के बहुमुखी विकास में योगदान कर सके-शिक्षा का यह प्रथम गुरु शिष्य का यह भाव ही जैन सूत्र दशवैकालिक के ९वें । उद्देश्य था। अध्ययन में विभिन्न सुन्दर उपमाओं द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। उपनिषद में एक वाक्य आता है-तेजस्विनावधीतमस्तु-हमारा इसके साथ ही शिक्षा प्राप्त करने का एक महान उद्देश्य भी हैअध्ययन तेजस्वी हो। हमारा ज्ञान जीवन में प्रकाश और तेज पैदा और वह है आत्मज्ञान प्राप्त करना। जीवन में अर्थ प्रथम करे। दशवैकालिक में भी कहा है-गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त आवश्यकता है, परन्तु सर्वोपरि आवश्यकता नहीं। मनुष्य के मन में करने वाले शिष्य का ज्ञान, यश और तेज “शीतल जल से सींचे भूख असीम है, अनन्त है, इसे धन, यश, सत्ता आदि की खुराक हुए पादप की भाँति बढ़ते हैं। जल सित्ता इव पायवा। तथा जैसे घृत शान्त नहीं कर सकती। मन की शान्ति के लिए केवल एक ही सिंचित अग्नि का तेज बढ़ता है, वैसे ही विनय से प्राप्त विद्या उपाय है, और वह है-आत्मज्ञान! आत्मविद्या! विद्यार्थी के सामने तेजस्वी होती है। ज्ञान प्राप्ति का विशिष्ट और महान उद्देश्य यही है। इसी अध्ययन में विनय और अविनय का फल बताते हुए दशवैकालिक सूत्र में श्रुत समाधि४0 का वर्णन है। जिसका आचार्य ने बहुत ही स्पष्ट बात कही है अर्थ है ज्ञान प्राप्ति से चित्त की समाधि और शांति की खोज विपत्ति अविणीयस्स संपत्ति विणियस्स य। करना। उसके लिए शिक्षार्थी अपने मन में एक पवित्र और महान लक्ष्य निश्चित करता है। अविनीत को सदा विपत्ति और विनीत को संपत्ति प्राप्त होती। है, जिसने यह जान लिया है, वही शिष्य गुरुजनों से शिक्षा और १. अध्ययन करने से मुझे आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होगी। ज्ञान प्राप्त कर सकता है।३७ २. ज्ञान प्राप्ति से मेरे चित्त की चंचलता दूर होगी, एकाग्र Place शिक्षा का उद्देश्य चित्त बन सकेगा। ३. मैं स्वयं को धर्म में, सदाचार में स्थिर रख सकूँगा। जैन आगमों व अन्य व्याख्या ग्रंथों के परिशीलन से इस बात का भी पता चलता है कि विद्यार्थियों को सिर्फ अध्यात्म ज्ञान ही ४. मैं स्वयं धर्म में स्थिर रहकर दूसरों को भी धर्म में स्थापित नहीं, किन्तु सभी प्रकार का ज्ञान दिया जाता था। भगवान ऋषभदेव कर पाऊँगा। ने आत्मज्ञान से पूर्व अपने पुत्र-पुत्रियों को ७२ एवं ६४ प्रकार की इन चार उद्देश्यों पर चिन्तन कर शिक्षार्थी ज्ञानाराधना में प्रवृत्त कलाएँ तथा विविध विद्या, शिल्प आदि का प्रशिक्षण दिया था। इन होता है। कलाओं की सूची से स्पष्ट होता है कि इनमें वस्त्र निर्माण, वास्तु कला, कृषिकला, गायन कला, शासन कला (राजनीति) काव्यकला, स्थानांग सूत्र में४१ कुछ भिन्न प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पाँच नृत्यकला, युद्धकला, मल्लविद्या, यहाँ तक कि कामकला का भी। विशिष्ट उद्देश्य बताये गये हैंसमावेश था।३८ १. शिक्षा प्राप्त करने से ज्ञान की प्राप्ति होगी। शारीरिक, मानसिक, विकास के समग्र साधन काम में लिये २. दर्शन (सम्यग् बोध) की प्राप्ति होगी। जाते थे और शिक्षार्थी को समाज में सम्मानपूर्वक आजीविका तथा ३. चारित्र (सदाचार) की प्राप्ति होगी। उच्चजीवन स्तर यापन के योग्य बनाया जाता था।३९ ४. दूसरों के कलह, अशान्ति, द्वेष आदि का शमन कर आज विद्यार्थी के सामने शिक्षा प्राप्त करने का सबसे पहला स|गा। ज्ञानी बनकर समाज में शान्ति स्थापित कर सकूँगा। उद्देश्य है-डिग्री (उपाधि) प्राप्त करना तथा उसके पश्चात् कोई रोजगार प्रधान शिक्षण लेना। इन सबके पीछे, आजीविका प्राप्त ५. वस्तु पदार्थ का यथार्थ स्वरूप जान सकूँगा। 000000000DDDD 50506088906DOranepal QDID:630000030-370000000000 2HRRAODUmaya
SR No.211966
Book TitleVyaktitva ke Samgra Vikas ki Disha me Jain Shiksha Pranali ki Upayogita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Surana
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Education
File Size6 MB
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