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व्यक्ति एवं समाज
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज
जैन-संस्कृति की प्रासंगिकता
जैन-संस्कृति की सबसे बड़ी देन अहिंसा है। अहिंसा का महान् विचार, जो आज विश्व की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन समझा जाने लगा है और इसकी अमोघ शक्ति के सम्मुख संहारक शक्तियां कुण्ठित होती दिखाई देने लगी हैं, जैन-संस्कृति के महान् उन्नायकों द्वारा ही हिंसा-काण्ड में लगे हुए उन्मत्त संसार के सामने रक्खा गया था।
जैन-संस्कृति का महान् सन्देश है कि कोई भी मनुष्य समाज से सर्वथा पृथक् रहकर अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। समाज में घुल-मिल कर ही वह अपने जीवन का आनन्द उठा सकता है और दूसरे, आस-पास के सभी साथियों को भी उठाने दे सकता है। जब यह निश्चित है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं रह सकता, तब यह भी आवश्यक है कि वह अपने हृदय को उदार बनाए, विशाल बनाए, विराट बनाए और जिन लोगों से खुद को काम लेना है, उनके हृदय में अपनी ओर से पूर्ण विश्वास पैदा करे । जब तक मनुष्य अपने पार्श्ववर्ती समाज में अपनेपन का भाव पैदा न करेगा अर्थात जब तक दूसरे लोग उसको अपना आदमी न समझेंगे, और वह भी दसरों को अपना आदमी न समझेगा, तब तक समाज का कल्याण नहीं हो सकता । एक-दूसरे का आपस में अविश्वास ही विनाश का कारण बना हुआ है।
__ संसार में जो चारों ओर दुःख का हाहाकार है, वह तो प्रकृति की ओर से मिलने वाला मामूली-सा ही है। यदि अन्तः निरीक्षण किया जाए तो प्रकृति दुःख की अपेक्षा हमारे सुख में ही अधिक सहायक है । वास्तव में जो कुछ भी ऊपर का दुःख है, वह मनुष्य के ऊपर मनुष्य के द्वारा ही लादा हुआ है । यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी ओर से दूसरों पर किए जाने वाले दुःखों को हटा ले, तो यह संसार आज ही नरक से स्वर्ग में बदल सकता है।
जैन-संस्कृति के महान संस्कारक अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने तो राष्ट्रों में परस्पर होने वाले युद्धों का हल भी अहिंसा के द्वारा बतलाया है। उनका आदर्श है कि धर्म-प्रचार के द्वारा ही विश्व भर के प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह जंचा दो कि वह स्व में ही सन्तुष्ट रहे, पर की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे । पर की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है दूसरे के सुख-साधनों को देखकर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुस्साहस करना ।
जब तक नदी अपने पाट में प्रवाहित होती रहती है, तब तक उससे संसार को लाभ ही लाभ है, हानि कुछ भी नहीं। ज्यों ही वह अपनी सीमा से हटकर आस-पास के प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ़ का रूप धारण करती है, तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य खड़ा हो जाता है। यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सब के सब मनुष्य अपने-अपने स्व में ही प्रवाहित रहते हैं, तब तक कुछ अशान्ति नहीं है । अशान्ति और संघर्ष का वातावरण वहीं पैदा होता है, जहां मनुष्य अपने आपे से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है और दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर अधिकार जमाने लगता है।
प्राचीन जैन-साहित्य उठाकर आप देख सकते हैं कि भगवान् महावीर ने इस दिशा में बड़े स्तुत्य प्रयत्न किये हैं। वे अपने प्रत्येक गहस्थ शिष्य को पांचवें अपरिग्रह व्रत की मर्यादा में सर्वदा स्व में ही सीमित रहने की शिक्षा देते हैं । व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने न्याय-प्राप्त अधिकारों से कभी आगे नहीं बढ़ने दिया। प्राप्त अधिकारों से आगे बढ़ने का अर्थ है, अपने दूसरे साथियों के साथ संघर्ष में उतरना ।
जैन-संस्कृति का अमर आदर्श है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही उचित साधनों का सहारा लेकर उचित प्रयत्न करे । आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह कर रखना, जैन-संस्कृति में चोरी है। व्यक्ति, समाज
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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