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________________ 560 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय से नगर के बाहर निकला और उत्तर की ओर चला. चलते-चलते वह पिमा शहर पहुँचा और वहीं रहने लगा. बाद में मूर्ति भी वहाँ से आकाश मार्ग से उड़कर इस शहर में आई. वह व्यक्ति उस मूर्ति की पूजा करने लगा. पुराने ग्रंथों में लिखा है कि जब शाक्यधर्म का अन्त हो जाएगा तब यह मूर्ति नाग लोक में चली जाएगी. आज भी हो लो-लो किअ' शहर की जगह बहुत बड़ा मिट्टी का ढ़ेर पड़ा हुआ है.' यवनचंग और दिव्यावदान यवनचंग के द्वारा लिखी गई उपर्युक्त घटना का मूल क्या है, यह मैं नहीं जान सका किन्तु 'दिव्यावदान' में कुछ घटनाएं देखने को मिलीं. यवनचंग और दिव्यावदान इन दोनों की कथा का जैन ग्रंथों की उदायन कथा के साथ मिलान करने पर दोनों में जो साम्य मुझे दिखाई दिया वह आश्चर्यजनक है. पाठकों की जानकारी के लिये दिव्यावदान के रुद्रायणावदान नामक प्रकरण में आई हुई वह कथा देता हूँ : राजा बिम्बिसार के समय, जब भगवान् बुद्ध राजगृह में रहते थे तब दो महानगर प्रसिद्ध थे--एक पाडलिपुत्र और दूसरा रोरुक. रोरुक नगर में रुद्रायण नामक राजा राज्य करता था. उसकी चन्द्रप्रभा नामक की रानी थी. शिखंडी नामका पुत्र था और हिरु, भिरु नामक के दो महामंत्री थे. राजगृह में बिबिसार राजा था, उसकी वैदेही नामक की रानी और अजातशत्रु नामका पुत्र था. वर्षकार नामक उसका महामंत्री था. उस समय राजगृह के कुछ व्यापारी रोरुक नगर गये और वहाँ के राजा रुद्रायण से मिले. बिम्बिसार से मैत्री बढ़ाने की दृष्टि से राजा रुद्रायण ने व्यापारियों के साथ अपने राज्य के बहुमूल्य रत्न भेजे. उसके जबाब में राजा बिम्बिसार ने भी अपने यहाँ बनने वाले बहुमूल्य वस्त्रों की पेटियाँ भेजी. एक बार रुद्रायण ने अपने राज्य के कुछ बहुमूल्य रत्न बिम्बिसार को भेजे. बदले में उसने भगवान् बुद्ध का भव्य चित्र तैयार करवा कर रुद्रायण को भेजा. साथ ही रुद्रायण को बौद्ध धर्मी बनाने के लिये महाकात्यायण नामक भिक्षुक व शैला नाम की भिक्षुणी को भेजा. भिक्षु और भिक्षुणी रुद्रायण के महल में रहे और उसे बुद्धधर्म का उपदेश करने लगे. राजा धीरे-धीरे बुद्ध का अनुयायी बन गया. राजा रुद्रायण वीणा बजाने में बहुत कुशल था और रानी नृत्य करने में. एक दिन रानी नृत्य कर रही थी और राजा बीणा बजा रहे थे. नृत्य करती हुई रानी में मृत्युकाल के कुछ चिह्न राजा को दिखाई पड़े. राजा ऐसे चिह्न देख सहसा घबरा उठा और उसके हाथ से वीणा छूट गई. वीणा के एकाएक बन्द हो जाने से रानी चौंक गई और राजा से बोली स्वामी-- क्या मेरा नृत्य खराब था जिससे आपने बीणा बजाना ही बन्द कर दिया ? राजा ने कहा- ऐसी बात नहीं है, किन्तु तुम्हारी शीघ्र मृत्यु के कुछ चिह्न देख कर मैं घबरा गया और वीणा हाथ से छूट गई. आज से सातवें दिन तेरीमृत्यु होगी.' यह सुन रानी बोली-'अगर ऐसा ही है तो मैं भिक्षुणी बनना चाहती हूँ.' राजा ने इस शर्त पर भिक्षुणी बनने की आज्ञा दी कि-अगर तुम मर कर देव बनो तो मुझे आकर दर्शन देना. रानी ने राजा की यह बात मान ली और वह शैला भिक्षुणी के पास प्रवजित हो गई. सातवें दिन वह मरण संज्ञा की भावना करती हुई मरी और चातुर्महाराजिक देवलोक में देवकन्या के रूप में उत्पन्न हुई. वह देवकन्या उसी रात्रि में राजा के शयनयक्ष में प्रकट हुई. रानी को देखकर उसे आलिंगन करने के लिये राजा ने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाये और पास आने का आग्रह किया. तब देवकन्या बोली-'महाराज ! मैं मर कर देवकन्या बनी हूँ. अगर आप मुझ से समागम करना चाहते हैं तो आप भी प्रव्रज्या ग्रहण करें. मृत्यु के बाद जब आप देव बनेंगे तभी मुझ से समागम कर सकेंगे. इतना कह कर वह देवकन्या अदृश्य हो गई. देवकन्या के अदृश्य होने पर राजा विचार में पड़ गया. उसने सारी रात संकल्प-विकल्पों में व्यतीत की. अन्त में उसने प्रव्रज्या लेने का निश्चय किया. प्रातः भगवान् बुद्ध के समीप प्रव्रज्या के लिये राजगृह की ओर चल पड़ा. जाते समय उसने अपने पुत्र शिखण्डो को राज्यगद्दी पर बैठा दिया. दोनों मन्त्रियों को राज्य की सारी व्यवस्था करने 1. बिल की उपरोक्त पुस्तक भा०२ पृ० 324. Jain Edud
SR No.211964
Book TitleVaishalinayak Chetak aur Sindhu Sauvir ka Raja Udayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
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