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वीतराग-योग | २९
रहते और जिस व्यक्ति ने सुख भोगा उस भोक्ता व्यक्ति के भी विद्यमान रहते अर्थात भोग्य वस्तु, भोग का साधन, भोग की शक्ति एवं विषय सुख प्राप्ति के भोक्ता ये चारों तत्त्व ज्यों के त्यों विद्यमान रहने पर भी सुख नहीं रहता है। ऊपर के ताजमहल वाले उदाहरण में देखने के सुख को ही लें, ताजमहल के देखने से सुख मिलने का संबंध होता तो ताजमहल, वहाँ स्थित उसका पहरेदार व उसकी नयन की शक्ति, इन सबके विद्यमान रहते हुए भी पहरेदार को देखने का लेशमात्र भी सुख नहीं मिलता है। इससे यह फलितार्थ निकलता है कि इन्द्रियों की विषयवस्तु की प्राप्ति से सुख मिलता है, यह मान्यता भ्रान्त व मिथ्या है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर यह सुख मिलता कैसे है ? आगे इसी प्रश्न के समाधान पर प्रकाश डाल
सुख कामनापूर्ति में नहीं, कामना के अभाव में है
__ कामना की पूर्ति से जिस सुख की प्रतीति होती है, वस्तुतः उस सुख का कारण कामनाओं का अभाव तथा निष्काम होना है, न कि कामनाओं की पूर्ति तथा पूर्ति के लिए उपलब्ध वस्तुएँ । कारण कि कामना या भोगेच्छा की पूर्ति के समय जो वस्तुएँ उपलब्ध हुईं वे वस्तुएँ पहले भी विद्यमान ही थीं, नवीन नहीं उत्पन्न हई। केवल उनकी दूरी कम हुई है, पहले दूर थीं अब कुछ, निकट आ गई हैं । अत: उन वस्तुओं से सुख मिलता होता तो पहले भी मिलता । दूसरी बात यह है कि वस्तुएँ मिलकर भी प्रात्मरूप नहीं हो जाती हैं, आत्मा से अलग ही, भिन्न ही रहती हैं। जो प्रात्मरूप नहीं हैं, आत्मा से भिन्न हैं वे पर हैं । पर से आत्मा को सुख की उपलब्धि होना संभव नहीं है। पर पदार्थों से प्रात्मा को, अपने को सुख की प्राप्ति होती है, ऐसा मानना अपना पर के प्राधीन मानना है। दूसरे शब्दों में अपने को पराधीन बनाना है। यही नहीं, कामनापूर्ति के समय जिस सुख की प्रतीति होती है वह सुख भी उस समय कामना के न रहने से कामना के अपूर्तिजन्य दुःख के मिट जाने से मिलता है। कामनापूर्ति के समय कामना नहीं रहती अर्थात् कामना का अभाव हो जाता है, कामना का अभाव हो जाने से कामना की उत्पत्ति से पैदा हुई अशांति व दुःख मिट जाता है । अशांति व दुःख के मिट जाने से ही शांति व सुख की अनुभूति होती है । अतः वह सुख भी कामना के प्रभाव से मिलता है । तात्पर्य यह है कि सुख कामना के अभाव में है, कामनापूर्ति में नहीं। कारण कि कामनापूर्ति के समय वही स्थिति हो जाती है जो कामना उत्पत्ति से पूर्व थी अर्थात कामना का प्रभाव था।
सम्यग्ज्ञान-दर्शन का साधना: भेदविज्ञान
प्राशय यह है कि विषय-भोग का सुख सुखाभास है, मिथ्या है तथा कामनापूर्ति में निमित्तभूत वस्तुओं की उपलब्धि या परपदार्थ सुख-दुःख के कारण नहीं हैं । इस तथ्य का बोध होना ही सम्यग्ज्ञान है। इस बोध के होने में कामनाउत्पत्ति-पूर्ति का चक्र रूप ग्रंथि का भेदन हो जाता है और साधक कामनाओं व कामनापूर्ति में निमित्त वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति प्रादि पर-पदार्थों से परे हो जाता है । ऐसा होते ही उसे तत्काल निराकुल सुख व शांति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है, स्वानुभूति व स्वरूप का दर्शन होता है, यही सम्यग्दर्शन है।
स्व-पर का भेद समझकर स्व को पर से भिन्न अनुभव करने को जैन ग्रन्थों में भेदविज्ञान कहा है । यह भेदविज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान का सार है । कहा भी है
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन
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