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पंचम खण्ड / ४४
अर्चनार्चन
समाधि का अभ्यास करना चाहिये । तत्पश्चात विद्यमान व उदयमान भोगवृत्तियों से प्रसंग होने के लिए, उन्हें कृश करने के लिए (१) बाह्य तप (२) प्रत्याहार (३) कायानुपश्यना-वेदनानूपश्यना को अपनाना चाहिये। फिर चित्त का शोधन करने के लिए (१) प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय तप, (२) धारणा, (३) चित्तानुपश्यना करना चाहिए। तदनंतर कारण (कार्मण) शरीर से प्रसंग होने के लिए (१-२) ध्यान, (३) धर्मानुपश्यना करना चाहिए और . अन्त में देहातीत होने के लिए (१) कायोत्सर्ग, (२) संप्रज्ञातसमाधि, (३) भवांग ध्यान करना उपयुक्त है। फिर कैवल्यप्राप्ति के लिए (१) शुक्लध्यान, (२) समापत्ति, (३) सवितर्कसविचार प्रादि चारों ध्यान करना होता है।
इस प्रकार ऊपर वणित बहिर्मखी से अन्तर्मखी होने की साधना में जैनदर्शन में वर्णित ज्ञान, दर्शन, चारित्र (संवर) और तप रूप साधना का, बौद्धदर्शन में वर्णित शील, समाधि, प्रज्ञा, अष्टांगिक मार्ग का, योगदर्शन में वर्णित अष्टांग योग का समावेश हो जाता है । इन तीनों साधनाओं का लक्ष्य कैवल्य की उपलब्धि कराते हए निर्वाण तक पहुँचना है। इन तीनों साधनाओं का हार्द या प्राण वीतरागता है, ये तीनों वीतराग मार्ग का समर्थन व अनुसरण करती हैं। वीतराग साधना के ही ये तीन रूप हैं। वीतरागता का सिद्धान्त तीनों साधनाओं को समान रूप से स्वीकार्य है। इसके संबंध में इनमें कहीं अन्तर नजर नहीं पाता। इनमें जो अन्तर दिखाई देता है वह इनके विभाजन व वर्गीकरण का है। किसी भी साधना-प्रक्रिया का विभाजन या वर्गीकरण अनेक प्रकार से हो सकता है। उससे मूल वस्तु में कोई अन्तर नहीं पड़ता है।
लेखक द्वारा उपर्युक्त तीनों साधनाओं का प्रस्तुत किया गया साम्य बहुत ही स्थूल व मोटे रूप से है । इसे केवल संकेतात्मक ही समझना चाहिए, निश्चयात्मक व निर्णयात्मक नहीं। महत्त्व इन साधनों के वर्गीकरण या साम्य का नहीं है। महत्त्व है वीतरागता का । जो भी वीतराग पथ है, जिससे राग गलता है, घटता है, दूर होता है तथा वीतरागता की ओर प्रगति होती है, वही साधना है। वीतराग मार्ग नैसर्गिक नियमों पर आधारित है, अतः यह सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक सत्य है, यह किसी संप्रदाय, जाति, वर्ण, वाद व परम्परा से बंधा नहीं है । जो भी इसे अपनाता है उसका कल्याण होता है, उसे तत्काल शांति, मुक्ति, प्रसन्नता की अनुभूति होती है, इसके विपरीत जो साधना वीतरागता के विरुद्ध हो, वीतरागता की अोर न बढ़ाती हो, राग-निवृति में सहायक न हो, राग-उत्पादक व रागवर्द्धक हो-वह साधना नहीं है, विराधना है । वह त्याज्य है ।
___ इस लेख का उद्देश्य जैन, योग व बौद्ध साधना का पक्ष लेना व पुष्ट करना तथा अन्य साधना पद्धतियों को हीन समझना नहीं है। प्रत्युत इन साधनामों में रही हुई वीतरागता को प्रकट तथा पुष्ट करना है । साधना में मूल्य वीतरागता का है, किसी साधना-विशेष का नहीं। जिससे वीतरागता का पोषण हो वही साधना है। वही स्वीकार्य है । अत: इन साधनापथों में अथवा अन्य किसी साधना-पथ में जो बात जिस किसी को जहाँ कहीं भी वीतरागता के विपरीत लगे उसे असाधन समझ कर छोड़ देना चाहिये । इन साधनाओं में भी अनेक मतभेद, विचारभेद, दृष्टिभेद, दार्शनिकभेद, कथनभेद, वर्गीकरणभेद, अर्थभेद, समझभेद
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