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वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण / ९३
(ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय) में सर्वप्रथम मोह का क्षय होते ही साधक वीतराग बन जाता है, तदनन्तर वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, एवं अंतराय कर्मों का क्षय करता है। अन्य चार कर्मों का एक साथ प्रायुकर्म के क्षय होते ही नाश हो जाता है और वीतराग मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । १६ २. मोक्ष एवं ब्रह्मनिर्वाण
भगवद्गीता में समस्त कामनाओं के त्यागी स्थितप्रज्ञ की स्थिति को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है । वह इस स्थिति को प्राप्त कर पुनः मोहित नहीं होता तथा इस स्थिति में स्थित रहकर ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त कर लेता है। २० उत्तराध्ययन सूत्र की शब्दावली में मोक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है । वहाँ वीतराग को चार धाति कर्मों का क्षय करने वाला कहकर आयुकर्म का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त करने वाला प्रतिपादित किया गया है। गीता में ब्रह्मनिर्वाण के लिए आयुकर्म के क्षय की बात नहीं की गयी, जो कि उत्तराध्ययन सूत्र में की गई है। ३. एकान्त सुख
उत्तराध्ययन में राग एवं द्वेष का क्षय करने वाले वीतराग को एकान्तसुख (अव्याबाधसुख, अक्षयसुख, अनन्तसुख) का प्राप्तकर्ता कहा है यथा-रागस्स दोसस्स य संखएण, एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं ।२१ बत्तीसवें अध्ययन में भी सब कर्मों से मुक्त होने पर उसे अत्यन्त सुखी बतलाया है
सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को जं बाहइ सययं जंतुमेयं । दोहामयं विप्पमुक्को पसत्थो
तो होइ अच्चंतही कयस्थो ॥ ३२॥११० जो दुःख इस जीव को निरन्तर पीड़ित कर रहा है, उस समस्त दुःख से वह जीव मुक्त हो जाता है तथा दीर्घ कर्म रोग से मुक्त हुमा प्रशस्त जीव कृतार्थ होकर अत्यन्त सुखी हो जाता है।
. भगवद्गीता में अत्यन्तसुख की बात नहीं कही गयी। वहाँ तो कामनाओं के त्यागने वाले नि:स्पृह, निर्मम एवं निरंहकार साधक को केवल शान्ति प्राप्त करने वाला कहा है । २२ उपसंहार
भगवद्गीता में प्रतिपादित "स्थितप्रज्ञ' एवं उत्तराध्ययन में प्रतिपादित 'वीतराग' दोनों भिन्न-भिन्न संस्कृति के आदर्श पुरुष हैं। दोनों राग-द्वेष का नाश कर विषय-भोगों से विमुख होते हैं, तथा सुखद एवं प्रिय वस्तु के प्रति न राग करते हैं और न ही दुःखद एवं अप्रिय वस्तु के प्रति द्वेष । दोनों समता की प्रतिमूर्ति हैं। दोनों अपने समस्त दुःखों का विनाश करने वाले हैं। उनका चित्त एवं इन्द्रियाँ उनके वश में रहती हैं, वे उनसे सुखभोग की इच्छा नहीं करते।
वीतराग की प्रज्ञा सम होती है तथा स्थितप्रज्ञ भी वीतराग होता है। फिर भी उनमें कुछ मौलिक भिन्नताएँ हैं । वीतराग मोहकर्म का नाश होने से बनता है, तदनन्तर वह ज्ञानावरणादि अन्य तीन घातिकर्मों का क्षय कर अरिहन्त बन जाता है, तथा अंतिम समय में चार अघातिकर्मों का क्षयकर सिद्ध बन जाता है। स्थितप्रज्ञ का कर्मों से कोई सम्बन्ध
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय
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