________________ इस प्रकार दोनों स्तोत्रोंके शब्दों, अर्थों और भावोंमें पर्याप्त साम्य उपलब्ध होता है और यह संकुचित स्वार्थ पर आधारित साम्प्रदायिक व्यामोहसे ऊपर उठकर भावनात्मक एकता और धार्मिक सहिष्णुताकी ओर इंगित करता है। धर्मकी धरा पर जातिका नहीं, गुण और कर्मका ही महत्त्व है / जैनधर्मके प्रचारक तीर्थंकर जैन (वैश्य) नहीं, अपितु क्षत्रिय ही थे / अनन्यभक्तिनिष्ठा त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव / त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव / / यह श्लोक विष्णुसहस्रनामका आमुख ही है पर यह उसमें नहीं है / इसमें जैसे भक्तकी भगवान विषयक अनन्य निष्ठाकी अभिव्यक्ति हुई है, वैसे ही जिनसहस्रनामके निम्नलिखित श्लोकमें भी जिनसेन या जिन पक्तकी अनन्यनिष्ठा प्रगट हई है : त्वमतोऽसि जगद्वन्धुः, त्वमतोऽसि जगद्भिषक् / त्वमतोऽसि जगद्धाताः त्वमतोऽसि जगद्धितः / / संक्षेपमें दोनों ही सहस्रनाम अपनेमें अनन्य निष्ठाको आत्मसात् किये हैं और भगवानके एक नहीं, अनेक नामोंके लिये स्वीकृति दे रहे हैं। दोनों ही प्रतिदिन पढ़े जाने पर भक्तोंके लिये लोक-परलोकके कल्याणकी बात कह रहे हैं। सारणी 1 में उपरोक्त विवेचनका संक्षेपण किया गया है। सारणी 1. जिनसहस्रनाम और विष्णुसहस्रनाम जिनस० विष्णुस० 1 रचयिता जिनसेन वेदव्यास 2 श्लोक संख्या 142 3 प्रस्तावनामें श्लोक 4 समापनमें श्लोक 13 अनुष्टुप् अनुष्टुप् 6 अलंकार उपमा, अनुप्रास बहुल उपमा-अनुप्रास बहुल 7 नाम 1008 1008 8 उद्देश्य परमश्रेय, अलौकिक निवृत्ति / परमश्रेय, किंचित् शुभ लौकिक प्रवृत्ति 9 विभाजन दश अध्याय 10 अभिव्यक्ति वीतरागता ईश्वरके प्रति कर्तव्यभाव - 151 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org