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विद्यापति : एक भक्त कवि
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उक्त उद्धरण से स्पष्ट होता है कि भक्त कवि की कृतियों का सही मूल्यांकन करने में हम आधुनिक दृष्टि का उपयोग न करें। इस भ्रम पूर्ण उपनयन को उतारने के बाद ही हम उनके काव्य और व्यक्तित्व को प्रांकने की अनाविल दृष्टि पा सकते हैं अपने एक और लीला और भक्ति निबंध में द्विवेदी जी ने चैतन्य देव और राय रामानंद का एक संवाद प्रस्तुत किया है। चैतन्य देव ने राय रामानंद से जब पूछा, "विद्वन, तुम भक्ति किसे कहते हो?" उन्होंने भक्ति के लिए क्रमशः स्वधर्माचरण, प्रेम, कर्मा का अर्पण, दास्य प्रेम, सख्य प्रेम, कान्ता भाव आदि उत्तर दिए पर अंत में राधाभाव ही प्रमुख उत्तर रहा । महाप्रभु ने इस अंतिम उत्तर के लिए उनसे प्रमाण मांगा । प्रमाण में राय रामानंद ने गीत गोविंद का ही मत उद्धृत किया और कहा-"भगवान श्रीकृष्ण ने राधा को हृदय में धारण करके अन्यान्य ब्रज सुन्दरियों को त्याग दिया था। अतः कान्ता भाव में राधा भाव हो सर्वश्रेष्ठ ठहरा। यही राधा भाव जयदेव ने भागवत पुराण परपरा से अलग रखा है। भागवत में कहीं गधा का नाम तक नहीं है।
हमारी विद्यापति सम्बन्धी इस मान्यता की पुष्टि में हम प्राचार्य द्विवेदी के एक उद्धरण को और रखना चाहेंगे जिसमें विद्वान आलोचकों ने जयदेव से प्रभावित विद्यापति के लक्ष्यों तथा मूल तत्वों का स्पष्टीकरण किया है-- भगवान में जितने संबन्धों की कल्पना हो सकती है उनमें कान्ता भाव का प्रेम ही श्रेष्ठ माना गया है। वैष्णव भक्तों ने इस सम्बन्ध को इतने सरस ढंग से व्यक्त किया है कि भारतीय साहित्य अन्य साधारण अलौकिक रस का समुद्र बन गया है।"
इस बात से यह धारणा स्पष्ट होती है कि कान्ता भाव का वैष्णव भक्तों से कितना गहरा लगाव रहा है। वस्तुतः विद्यापति को यह परंपरा जयदेव से थाती के रूप में मिली जिसका प्रमुख लक्ष्य था प्रेम (परकीया प्रेम) वर्णन और हम विद्यापति को इसी मार्ग पर दृढता से बढ़ता हुआ पाते हैं ।
इस तरह यह निष्कर्ष निकला कि सगुण वैष्णव सहजयान मत का यह प्रेमी कवि परकीया प्रेम में ही मोक्ष और महासुख की कल्पना करता था।
प्रायः पालोचक वर्ग उन्हें उत्तान शृगारी कवि सिद्ध करने के लिए उनके इस पद को उद्धृत करते हैं
नीवी बंधन हरि किए दूर एहो पये तोर मनोरथ पर विहर से रहसि हेरने कोन काम से नहिं सह बसि हमर परान परिजनि सुनि सुनि तेजव निसास
लहु लहु रमह सखी जन पास उक्त पद में कवि ने राधा-कृष्ण के मिलन एवं संभोग का वर्णन किया है जिसे अश्लील कहा जाता है, पर आलोचक यही नहीं सोचते कि साधना जन्य स्थितियों को एवं मिलन महासुख को वर्ण्य विषय बनाने वाले इस कवि को उक्त पद लिखने में क्या झिझक हो सकती थी.? उनके लिए यह सभी वर्णन महासुख की कामना का प्रयास था। ऐसे वर्णनों को अश्लील कहने तथा कवि को विलास की सामग्री मात्र प्रस्तुत करने वाला कहने के पूर्व हमें कुछ और महत्वपूर्ण बातों पर भी विचार कर लेना चाहिए । उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:- . . . .
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