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________________ ६६ डॉ. हरीश प्राप्त करना है। इस प्रकार इन कवियों ने बौद्ध सहजयान की योग क्रियाओं से परिपुष्ट काम भाव से "प्रेम" तत्व ले लिया और वही प्रेम अब चण्डीदास तथा विद्यापति द्वारा आध्यात्मिकता में ढाला जाने लगा। ये परम ईश्वर को मानव-प्रम में खोजने लगे। अतः राधा और कृष्ण ही इन भक्त कवियों के आधार बने । राधा को कृष्ण की शक्ति जानकर कृष्ण को पारब्रह्म के रूप में माना गया। कृष्ण में भोक्ता और भोग्य दो तत्व अभिहित किए गए। दोनों का सम्बन्ध नित्य तथा अक्षर माना गया। राधा भोग्य रही, कृष्ण भोक्ता और वृन्दा का मनोहारी वन ही इनका लीलाधाम समझा गया। इस प्रकार इन दोनों के इस अंतरंग प्रेम को विद्यापति ने मानवीय प्रेम के रूप में प्रस्तुत किया और प्रेम की भावना परकीया इसलिए रखी गई कि उसमें असाधारण उत्कटता हो । निष्कर्षत: विद्यापति ने इस धारणा को प्रादर्श बनाया कि भक्त को भगवान से ऐसा ही प्रेम करना चाहिए जैसा परकीया अपने प्रेमी से करती है। उक्त समस्त विश्लेषण इसलिए प्रस्तुत किया गया है कि विद्यापति की कवि परंपरा स्पष्ट हो जाय और विद्वानों के सामने यह बात खुले कि वे किस सम्प्रदाय के दर्शन से प्रभावित कवि थे। ___ "विद्यापति भक्त थे"-इस महत्वपूर्ण स्थापना की अभिसिद्धि के लिए हम और अनेक मौखिक मान्यताओं को विद्वानों के सामने रखना चाहते हैं । हो सकता है ये निष्कर्ष उन्हें भी रुचें और विद्यापति सम्बन्धी पूर्वाग्रह नई मान्यता में परिरिणत हो जायं। इसके लिए हम कुछ अग्रांकित निर्णय प्रस्तुत कर १-विद्यापति सगुण वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय के कवि थे । २-सहजिया दर्शन से प्रभावित होकर ही उन्होंने प्रेम तत्व या परकीया प्रेम को जीवन का लक्ष्य समझा। ३. इस संदर्भ में हम डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'साहित्य के माध्यम से धार्मिक संबंध" नामक निबंध में प्रकट किए कुछ विचारों को प्रकट करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे-'मध्यकाल के भक्त कवियों को समझने के लिए हमें थोड़ा सा वर्तमान काल से निकलना पड़ेगा। हम जिस वातावरण में शिक्षित हुए हैं उसकी एक बड़ी विशेषता यह है कि उसने हमारी समस्त प्राचीन अनुश्रुतिक धारणाओं से हमें अलग विच्छिन्न कर दिया है। यदि हम संपूर्ण रूप से विच्छिन्न भी हो गए होते तो हम आधुनिक ढंग से सोचने की अनाविल दृष्टि पा सकते । परन्तु हम पूर्ण रूप से अनुश्रुतियों से विच्छिन्न भी नहीं हुए हैं और उन्हें जानते भी नहीं हैं नतीजा यह हुआ कि श्री कृष्ण का नाम लेते ही हम पूर्णानन्द घन विग्रह की सोचे बिना नहीं रहते और फिर भी गोपियों के साथ उनको रास लीला की बात समझ नहीं सकते अर्थात् श्री कृष्ण को तो हम परम देवता का रूप मान लेते हैं। और आगे चलकर हम सारी कथा को तदनुरूप नहीं समझ पाते। इस अधकचरी दृष्टि का परिणाम यह हआ कि हम वैष्णव कवियों की कविता को न तो उसके तत्ववाद निरपेक्ष रूप में देख पाते हैं और न तत्ववाद सापेक्ष रूप में । हम झट कह उठते हैं कि भगवान के नाम पर ये क्या ऊल जलूल बातें हैं । यदि सूरदास के श्री कृष्ण और राधा, कालिदास के दुष्यन्त और शकुन्तला की भांति प्रेमी और प्रेमिका होते तो बात हमारे लिए सहज हो जाती । पर न तो वे प्राकृत ही हैं और न हमें उनके अप्राकृतिक स्वरूप की वास्तविक धारणा ही है, इसलिए हम न तो वैष्णव कवियों की कविताओं को विशुद्ध काव्य की कसौटी पर ही कस सकते हैं और न विशुद्ध भक्त की दृष्टि से ही अपना सकते हैं। हम मध्यकाल के भक्त कवि को गलत किनारे से देखना शुरू करते हैं और प्राधा सूधा जो कुछ हाथ लगता है उसी से या तो झुंझला उठते हैं या गद्गद् हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211919
Book TitleVidyapati Ek Bhakta Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size2 MB
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