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________________ विद्यापति : एक भक्त कवि पिछले कई वर्षों से स्नातकोत्तर कक्षाओं को हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल का अध्यापन करते हुए अनेक महत्वपूर्ण समस्याएं सामने आई। उनमें से एक महत्वपूर्ण प्रश्न कविवर विद्यापति के सम्बन्ध में उठा और वह यह कि विद्यापति एक उत्तान शृगार लिखने वाले कवि हैं जिन्होंने अपने पदों के सृजन में जो वर्णन किया है उसे पढ़कर कोई भी प्रालोचक उन्हें घोर शृगारी कवि कहने में ही परम संतोष का अनुभव करता है । विद्यापति पढ़ाते हुए मुझे भी यही लगा कि विद्यापति के पद पढ़ाते समय अध्यापक स्वयं एक विचित्र स्थिति और संकट का अनुभव करता है, क्योंकि वह विशुद्ध रूप से साहित्य का अध्यापक है किसी काम भाव (सैक्स) अथवा काम सूत्रों को पढ़ाने वाला अध्येता नहीं है। विद्यापति के पदों का रचना-विषय (कान्टेंट) निश्चित रूप से अध्यापक को एक अपूर्व संकोच में डाल देता है और वह जैसे वैसे उन पदों का अभिधार्थ कहकर अपना कर्तव्य पूरा कर देता है। __ दूसरी ओर विद्यापति में कविकर्म और सृजन के ऐसे मर्म भी मिलते हैं कि उनकी कृतियां उन्हें मिथिला का अमर कवि बनने का गौरव प्रदान किए हुए है। साथ ही साथ उनकी नचारियां और अन्य पद पढ़कर यह बात सहज ही उठती है कि भक्ति और शृगार जैसे विरोधी भावों को काव्य का विषय बनाकर विद्यापति एक ठोस व्यक्तित्व की छाप छोड़ गए हैं तो यह भी बात समझ में आने लगती है कि विद्यापति के काव्यों का सम्यक अध्ययन कदाचित अद्यावधि नहीं हो पाया है और यही कारण है कि विद्यापति जैसी सम्पन्न कृति को पालोचकों ने घोर शृगारी कहकर एक ओर रख दिया है। इस समस्त पृष्ठ भूमि को ध्यान में रखकर हमने विद्यापति के मूल्यांकन पर कई दृष्टियों से विचार किया और इस समस्त अध्ययन का फल यह निकला कि उनके व्यक्तित्व का एक विशिष्ट पहलू स्पष्ट हुआ जिसे हम इस निबन्ध के रूप में विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करने का साहस कर रहे हैं। विद्यापति को किसी पूर्वाग्रह से मुक्त होकर न सोचने वाले पालोचक हमारे इस कथ्य पर नाक भौं सिकोड़ सकते हैं परन्तु इन मतभेदों को हम पाठकों के निर्णय पर छोड़ अपनी बात खुलकर कहना चाहेंगे ताकि विद्यापति जैसे अमर कवि का एक मौलिक एवं दिव्य व्यक्तित्व सामने प्रासके जो आज तक धूमायित बनाकर उपेक्षा प्राप्त कर दिया गया । प्राशा है विद्वान बिना किसी पूर्वाग्रह के हमारी बात वैसी ही समझकर उसे अन्यथा न लेने की कृपा करेंगे। मिथिला का गर्व गौरव चिर स्मृतव्य है। अत्यन्त प्राचीन गौरव भूमि मिथिला एक और राजर्षि जनक की जन्म भूमि है, (जिसके पास स्वयं शुकदेव जैसे महापंडित ज्ञान प्राप्त करने पाए थे और कहते हैं जिसका एक हाथ स्त्री के वक्ष पर और दूसरा जलती अग्नि में रहता था) तो दूसरी ओर मिथिला को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211919
Book TitleVidyapati Ek Bhakta Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size2 MB
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