________________ 26 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा भभिनन्दन अन्य : पाठ बम o r -. -. -. -. -.-. -.-.-.-...-.-.-. -.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. eBo E.Hultzsch ने किया और प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसाइटी, Hertford से 1606 में हुआ। सम्पादक ने इसकी भूमिका में लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उपर्युक्त व्याकरणों के आधार पर विदेशी विद्वानों ने अनेक व्याकरण-ग्रन्थ स्वतन्त्ररूप से लिखे जिनमें Hoeffar, Lassen, Muller, Goldschmidt, Jacobi, Pavolini, Grierson, wollner आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। बाद में Weber, Jacobi, Comell, Pischel, Nachtrag आदि विद्वानों ने प्राकृत की किसी एक बोली पर अध्ययन प्रारम्भ किया / तदनन्तर आचारंग, सूयगडंग, उत्तरज्झयण आदि जैन ग्रन्थों का विशेष आधार लेकर प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन भी पाश्चात्य विद्वानों ने किया। ___ अपभ्रंश साहित्य की ओर भी इन विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ। सर्वप्रथम Pischel ने 'Materialen zur Kenntnis des Apabhransa (Goltingen,1902) और 'Ein Nachtrag zur Grammatik der Prakrit Sprachen' (Berlin, 1902) प्रकाशित किये और फिर Jalobi ने उनका अध्ययन कर प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थों का सम्पादन किया। उत्तराध्ययन, आचारांग, कालकाचार्य कथानक, पउमचरिय, समराइच्चकहा (1913-14), भविसयत्तकहा (Munchen 1918), सनतकुमारचरिउ (1921) आदि ग्रन्थों का सम्पादन उनकी ही प्रतिभा और अध्यवसाय का परिणाम था। उनके बाद Alsdorf ने इस क्षेत्र को संवारा और कुमारपालप्रतिबोध (Harward University, 1928) आदि ग्रन्थ सम्पादित किये / इन विद्वानों ने अन्य विद्वानों को भी प्रेरित किया और फलतः वर्तमान में भी इस दिशा में कार्य चल रहा है। प्राकृत-अपभ्रंश के साथ ही संस्कृत जैन साहित्य का भी विदेशी विद्वानों ने अध्ययन किया / Jacobi, Keith आदि जैसे विद्वान इस क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं। आचार्यों के काल-निर्णय की दिशा में उनका विशेष योगदान कहा जा सकता है। प्रचार-प्रसार जैन साहित्य के इस अध्ययन क्रम ने विदेशों में जैनधर्म की लोकप्रियता को काफी आगे बढ़ाया। स्व० श्री चम्पतराय बेरिस्टर और श्री जैनी ने ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों में जाकर जैनधर्म पर अनेक भाषण दिये और एक संस्थान भी प्रारम्भ किया। वर्तमान में उनके कार्य को डॉ. नरेन्द्र सेठी बढ़ा रहे हैं पूरी तत्परता के साथ / उन्होंने वहाँ एक मन्दिर तथा एक पुस्तकालय का निर्माण कराया है। पिछले वर्ष मुनि श्री सुशीलकुमारजी ने अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में तीन-चार माह की लम्बी यात्रा कर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया तथा जैन योगसाधना केन्द्रों की स्थापना की। मुनिश्री कुछ शिष्यों को साथ लेकर वापस आये और उन्हें जैन आचार का व्यावहारिक शिक्षण-निरीक्षण कराया। अभी जनवरी 1980 में नाइरोबी (केनिया) में पंचकल्याण प्रतिष्ठा कराकर श्री कानजी स्वामी ने जैनधर्म के प्रचार में एक और नया अध्याय जोड़ दिया है। उन्होंने वहाँ अपनी शिष्य-मण्डली के साथ स्वयं पहुंचकर नाइरोबी, मुम्बासा आदि शहरों में बीस दिन तक तत्त्व प्रचार किया तथा जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई।। विदेशों में हए जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के इस संक्षिप्त विवरण से यह संकेत मिलता है कि जैन सिद्धान्तों की समीचीनता तथा उसकी सार्वभौमिकता की ओर विदेशियों का झुकाव रहा है / जिस तत्परता और लगन के साथ बौद्धधर्म का प्रचार किया गया, यदि उसी तत्परता और लगन के साथ जैनधर्म का प्रचार किया गया होता तो निश्चित ही जैनधर्म की स्थिति बौद्धधर्म की स्थिति से कहीं अधिक अच्छी होती। 1. विस्तृत जानकारी के लिये देखिये लेखक का लेख-"आधुनिक युग में प्राकृत व्याकरण शास्त्र का अध्ययन-अनु संधान-संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा," छापर, 1977, पृ० 236-61. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org