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0 डॉ० राजाराम जैन, एम० ए०, पी-एच० डी०, शास्त्राचार्य [मगध विश्वविद्यालय, बोधगया (बिहार)]
विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अङ्क में प्रथित प्राकृत-अपभ्रंश पद्यों का काव्यमूल्यांकन
महाकवि कालिदास सार्वभौम कवि हैं। अनुपम पदविन्यास एवं काव्यगरिमा उनके समस्त नाटक! एवं काव्यों में उपलब्ध है। प्रकृति-वर्णन एवं मानव के आन्तरिक भावों का निरूपण महाकवि ने बड़ी ही पटुता से प्रदर्शित किया है । अपनी विलक्षण कल्पना और काव्य कौशल के बल पर उन्होंने मानवस्वभाव के सम्बन्ध में ऐसी अनेक बातें कही हैं जिन्हें सृष्टि में घ्र वसत्य की संज्ञा दी जा सकती है। रचनाओं में भारतीय साहित्य परम्परा तथा आदर्श की पूरी झांकी प्राप्त होती है। कालिदास का शृंगार जीवन को मधुमय ही बनाता है, वासनापूर्ण नहीं । वे प्रेय पर श्रेय का प्रभुत्व दिखलाते हैं। उनकी दृष्टि में हेय तो सर्वथा हेय ही है। जिस शृङ्गार में वासनाधिक्य रहता है और विवेक का अभाव हो जाता है वह शृङ्गार नितान्त हेय है क्योंकि इस प्रकार के शृङ्गार से व्यक्ति एवं समाज दोनों का अहित होता है। उनके नाटकों में मानव की मानसिक क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं को उस रूप में चित्रित किया गया है जो आज भी मानव के लिये दर्पण के समान हैं। वास्तव में हम उनके पात्रों की उल्लसित देख आनन्दविभोर हो उठते हैं, विलाप करते देख दुखविह्वल हो जाते हैं और उन्हें शोकमग्न देख हमें वेदना होने लगती है । साहित्य की यही सबसे बड़ी कसौटी है।
कालिदास की साहित्य-साधना समस्त संस्कृत वाङमय के लिये बौद्धिक, भावात्मक एवं मानसिक विकास में एक कड़ी के समान है। उन्होंने जहाँ जिस भाव का चित्रण किया है, वहाँ वह भाव हमें बरसाती नदियों से बहाकर प्रशान्त महासागर में पहुंचा देता है । प्रेमी-प्रेमिका के भोग-विलास एवं शीलसौष्ठव के प्रति भी आस्था एवं अनुराग व्यक्त करते हैं। राष्ट्र के अमर गायक कवि ने सांस्कृतिक परम्पराओं का यथेष्ट पोषण किया है। हम यहाँ उनके समस्त काव्य साहित्य का मूल्याङ्कन प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे। केवल विक्रमोर्वशीय-नाटक के चतुर्थ अङ्क में ग्रथित नेपथ्य के माध्यम से १८ एवं सामान्य वर्णनक्रम में १३, इस प्रकार कुल ३१ प्राकृत-अपभ्रंश पद्यों के काव्य सौन्दर्य का ही विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे।
विक्रमोर्वशीय नाटक के चतुर्थ अङ्क का प्रारम्भ ही प्राकृत-अपभ्रंश पद्य से होता है। नेपथ्य से
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