________________ वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण 213 की कृति मानते हैं। "त्रैलोक्यदीपिका नामक कृति उपलब्ध नहीं है। मल्लिषेण प्रशस्ति के त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोद्गादिह / जिनराजत एकस्मादेकस्माद् वादिराजतः // "2 में कदाचित् इसी त्रैलोक्यदीपिका का सकेत किया गया है। श्री नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि सेठ माणिकचन्द्र जी के ग्रन्थ रजिस्टर में त्रैलोक्यदीपिका नामक एक अपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें प्रारम्भ के 10 और अन्त में 58 पृष्ठ के आगे के पन्ने नहीं हैं। सम्भव है यही वादिराजकृत त्रैलोक्यदीपिका हो। विद्वद्रत्नमाला में प्रकाशित अपने एक लेख में प्रेमी जी ने एक सूचीपत्र के आधार पर वादिराजकृत चार ग्रन्थों- वादमंजरी, धर्मरत्नाकर, रुक्मणीयशोविजय और अकलंकाष्टकटीका का उल्लेख किया है। किन्तु मात्र स चीपत्र के आधार पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार वादिराजसूरि के परिचय, कीर्तन एवं कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न कवि एवं आचार्य थे। वे मध्ययुगीन संस्कृतसाहित्य के अग्रणी प्रतिभू रहे हैं तथा उन्होंने संस्कृत के बहुविध भाण्डार को नवीन भागराशियों का अनुपम उपहार दिया है / उनके विधिवत अध्ययन से न केवल साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय का गौरव समृद्धतर होगा। प्रवक्ता संस्कृत विभाग एस०डी० स्नातकोत्तर कालेज मुजफ्फरनगर (यू० पी०) 1. एकीभावस्तोत्र, प्रस्तावना, पृ० 16 2. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1, लेखांक 54, प्रशस्तिपद्य 40 3. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 404 4. विद्वद्रत्नमाला में प्रकाशित हिन्दी लेख का पार्श्वनाथचरित के प्रारम्भ में संस्कृत में वादिराजसरि का परिचय / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org