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वर्तमान युग में योग का नारीपर प्रभात
डॉ० श्रीमती मायारानी आर्य
आधुनिक नारी पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त करती जा रही है । उस पर समाज-निर्माण की जो जिम्मेदारी प्राचीन समय में थी उससे कहीं अधिक जिस्मेदारी वर्तमान समय में है और बढ़ती ही जा रही है। उसके अधिकारों में जहां वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर उसके कर्तव्य भी बहुमायामी हो गये हैं। परिवार के भरण-पोषण, शिक्षा, नारी-समाज में नव-चेतना जागत करने का कार्य भी उसे ही करना है। समाज में नवजागरण नारी-समाज द्वारा ही लाया जा सकता है। वर्तमान समाज को नैतिक-पाचरण की शिक्षा देना बहुत आवश्यक हो गया है क्योंकि इस युग में हम पश्चिम की ओर बढ़ रहे हैं । हमने अपने आदर्श और नैतिकता को त्याग दिया है, बिना नैतिक शिक्षा के समाज केवल अर्थ या तकनीकी शिक्षासे अपना विकास नहीं कर सकता ।
समाज में नवजागरण यदि लाना ही है तो नारी-समाज ही इसमें अपना योगदान दे सकता है। योग व संस्कार-शिक्षा के माध्यम से देश की आगे आने वाली नयी पीढ़ी का निर्माण अपने ढंग से कर सकते हैं। वर्तमान युग में उसे परिवार, समाज, देश व राष्ट्र के उत्थान के साथ अपनी संतति में बदले परिपेक्ष्य में नये संस्कार व प्राचार के नियम डालने व उनके परिपालन में कड़ी निगाह रखनी होगी।
मनोविज्ञान व अन्तःचेतना के नित नये शोध से बालमनोविज्ञान पर जो विचार प्राये हैं उनसे परिचित होकर बालकों में मन की एकाग्रता लाकर शिक्षा में प्रवृत्त करने का नया . कार्य-क्षेत्र अब उसके समक्ष खल गया है। नौकरी में सामाजिक क्षेत्र में जाकर अब उसके पास अपनी संतति के लालन-पालन में नई चनौती आई है, उस पर भी ध्यान देकर उसे पहले अपने जीवन में उतार कर फिर अपनी संतति को उससे अभ्यस्त करना होगा।
संतति में अच्छे संस्कारों का समावेश कराने में माता का योगदान ही प्रमुख होता है क्योंकि अधिकांश समय बालक अपने पिता की अपेक्षा माता के सान्निध्य में अधिक रहता है। इस प्रकार माता के व्यवहार से ही अच्छे संस्कार बालक में घर करते हैं। उससे ही सफल व्यक्तित्व का निर्माण होता है। बालकों में सृजनात्मक शक्ति माता ही उत्पन्न करती है। प्रत्येक बालक का अपना एक व्यक्तित्व होता है, उसकी अपनी अभिरुचि होती है और प्रसुप्त प्रतिभा होती है, उसे जान समझकर उन्हें उनके उचित मार्ग में अपनी शक्ति लगाने के लिए शारीरिक क्षमता को बढ़ाने का प्रयास करने में नारी ही योगदान कर सकती है। वैज्ञानिक, संगीतकार या कलाकार बनाने के लिये शरीर की यथोचित समृद्धि होनी चाहिये। कुछ बच्चे स्वभाव से ही आज्ञाकारी होते हैं, उन्हें एक ही बार स्पष्ट रूप से समझा देने पर वे उसका पालन करते हैं । उद्दण्ड बालकों पर विशेष ध्यान देना पड़ता है, ऐसे में उन्हें योग की व्यावहारिक शिक्षा दी जानी चाहिये। बच्चों को अनुशासित करने का सर्वोत्तम उपाय है कि माता स्वयं उनके लिये उदाहरण बन जाये, क्योंकि स्वभावतः बालक माता की दिनचर्या व व्यवहार का ही अनुकरण करते हैं।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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