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________________ "ननु वर्तनाग्रहणमेवास्तु तद्भेदाः परिणामादयस्तेषां पृथग्ग्रहणमनर्थकम्, नानर्थकम्; कालद्वयसूचनार्थत्वात्प्रपञ्चस्य ।" -स०सि० ५-२२ ।। यहाँ शंका की है कि एक वर्तनामात्रका ग्रहण करना पर्याप्त है, परिणाम आदि तो उसीके भेद हैं, अतः वर्तनाग्रहणसे उनका भी ग्रहण हो जायगा, उनका पृथक् ग्रहण करना व्यर्थ है ? इस शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं कि सूत्र में उनका पृथक् ग्रहण व्यर्थ नहीं है, क्योंकि कालके दो भेदोंकी सूचना--ज्ञापन करनेके लिये प्रपञ्च-विस्तार किया गया है। तात्पर्य यह कि पूज्यपादके लिये परिणाम आदिको वर्तनाके भेद मानना स्पष्टतः अभीष्ट है। दूसरे, सत्परिणमनको वर्तना माननेपर वर्तना और परिणाम दोनों एक नहीं हो जाते । प्रतिक्षण समस्त द्रव्योंका अपनी उत्तरोत्तर सूक्ष्म पर्यायोंमें जो वर्तन सत्परिणमन होता है वह तो वर्तना है। जैसा कि पूर्वोक्त विवेचन और सर्वार्थसिद्धिके उल्लिखित फुटनोटसे स्पष्ट है और पूर्वपर्यायके त्याग और उत्तर पर्यायके उत्पादरूप जो द्रव्यमें अपरिस्पन्दात्मक विकार-पर्याय होती है उसे परिणाम कहते हैं । जैसा कि स्वयं पूज्यपादके ही निम्न कथनसे प्रकट है "द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवत्तिधर्मान्तरोपजननरूप: अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः । जीवस्य क्रोधादिः, पुद्गलस्य वर्णादिः । धर्माधर्माकाशानामगुरुलघुगुणवृद्धिहानिकृतः" । -स०सि०५-२२ । पूज्यपादके अनुगामी अकलङ्क' और विद्यानन्द भी अपना यही अभिप्राय प्रकट करते हैं। इसी अध्यात्मकमलमार्तण्ड (पृष्ठ ८४) में अध्यात्मकमलमार्तण्डकारने परिणामका भी लक्षण दिया है, जिससे उनकी एकताका भ्रम दूर हो जाता है । उनका वह परिणामलक्षण इस प्रकार है "पर्यायः किल जीवपुद्गलभवो योऽशुद्धशुद्धाह्वयः" । अर्थात्-जीव और पुद्गलसे होने वाले शुद्ध और अशुद्ध परिणमनों-विकारोंको पर्याय-परिणाम कहते हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि ग्रन्थकार जीव और पुद्गलजन्य पर्याय (विकार) को ही परिणाम कहते हैं, धर्मादिद्रव्योंमें वे विकारको नहीं मानते । किन्तु तत्त्वार्थके सभी टीकाकारोंने द्रव्यविकारको परिणाम बतलाते हए धर्मादि द्रव्योंमें भी अगरुलघगणकृत विकार स्वीकार किया है और उसे भी परिणाम कहा है । अस्तु । तात्पर्य यह कि द्रव्यपर्यायों में प्रति समय होने वाला परिणमन तो वर्तना है और वे द्रव्यपर्याय परिणाम है। यही वर्तना और परिणाम में सिद्धान्तसम्मत भेद है । यद्यपि 'वर्तना' शब्द 'णिजंत' है, किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि 'णिज' का अर्थ यहाँ क्या विवक्षित है। सर्वार्थसिद्धिकारके णिजर्थ सम्बन्धी पूरे अभिप्रायको यहाँ दिया जाता है 'को णिजर्थः ? वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता कालः। यद्येवं कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति । यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयति इति; नैष दोषः; निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तव्यपदेशो दृष्टः । यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकर्तृता ।'–स० सि० ५-२२ । 'णिज्' का अर्थ क्या है ? द्रव्यपर्याय वर्त रही है, उसका वर्ताने वाला काल है। यदि ऐसा है तो कालके क्रियापना प्राप्त हो जायेगा । जैसे-शिष्य पढ़ता है, उपाध्याय पढ़ाता है ? यह कोई दोष नहीं, क्योंकि निमित्तमात्रमें भी कारणको कर्ता कह दिया जाता है। जैसे कण्डेकी अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कण्डेकी अग्निको पढ़ने में निमित्तकारण होने मात्रसे कर्ता कहा गया है। इसी प्रकार स्वतः वर्त रही द्रव्यपर्यायोंके १. त० वा०५-२२ । २. त० श्लो० वा०५-२२, पृ० ४१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211884
Book TitleVartanka Artha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Conduct
File Size483 KB
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