Book Title: Vartanka Artha
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 1
________________ वर्तनाका अर्थ पण्डित राजमलजी द्वारा रचित 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' एक महत्त्वपूर्ण रचना है । इसमें विद्वान् लेखकने जैन दर्शन में मान्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्योंका विशद निरूपण किया है। इसका हिन्दी अनुवाद और सम्पादन हमने किया है तथा जैन साहित्यकी प्रसिद्ध संस्था 'वीर-सेवामन्दिर' से उसका प्रकाशन हुआ है । इसमें वर्तनाका जो अर्थ हमने दिया है उसपर 'जैन गजट' के सम्पादक पं० वंशीधरजी शास्त्री सोलापुरने कुछ आपत्ति प्रस्तुत की है । ग्रन्थकी समालोचना करते हुए उन्होंने लिखा है 'पृष्ठ ८३ में कालद्रव्य का वर्णन आया है, वहाँ वर्तनाका हिन्दी अर्थ गलत हो गया है । वर्तनाका अर्थ लिखा है- द्रव्योंके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है। यह जो अर्थ लिखा गया है वह परिणामका अर्थ है - वर्तन का यह अर्थ नहीं है । 'वर्तना' शब्द णिजन्त है । उसका अर्थ सीधी द्रव्यवर्तना नहीं है, किन्तु द्रव्योंको वर्ताना अर्थ है । इसीलिये वर्तनारूप पर्याय खास अथवा सीधा कालपर्याय माना गया है और इसी सबसे वर्तना द्वारा निश्चयकालद्रव्यकी सिद्धि होती है । यदि वर्तनाका अर्थ जैसाकि यहाँ के हिन्दी अर्थ में बताया गया है कि द्रव्योंका सत्परिणाम वर्तना है तो कालके अस्तित्वका समर्थक दूसरा हेतु मिलना कठिन हो जायेगा । इसलिये पूर्वग्रंथोंके नाजुक एवं महत्त्वयुक्त विवेचनोंपर आधुनिक लेखकों को आदरसे ध्यान रखकर अपनी लेखनी चलानी चाहिए" । इस पर विचार करनेके पूर्व मैं 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' के उस पूरे पद्य और उसके हिन्दी अर्थको भी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । इससे पाठकोंके लिये समझने में सहूलियत होगी । पद्य और उसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है " द्रव्यं कालाणुमात्रं गुणगणकलितं चाश्रितं शुद्धभावे - स्तच्छुद्धं कालसंज्ञं कथयति जिनपो निश्चयाद् द्रव्यनीतेः । द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिदं वर्तना तत्र हेतुः कालस्यायं च धर्मः स्वगुणपरणतिर्धर्मपर्याय एषः ॥ अर्थ- गुणोंसे सहित और शुद्ध पर्यायोंसे युक्त कालाणुमात्र द्रव्यको जिनेन्द्र भगवान्‌ने द्रव्यार्थिक निश्चयनयसे शुद्ध कालद्रव्य अर्थात् निश्चयकाल कहा है । द्रव्योंके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है । इस वर्तनामें निश्चयकाल निमित्तकारण है - द्रव्यों के अस्तित्वरूप वर्तनमें निश्चयकाल निर्मित्तकारण होता है । अपने गुणों में अपने ही गुणों द्वारा परिणमन करना कालद्रव्यका धर्म है - शुद्ध अर्थक्रिया है और यह उसकी धर्मपर्याय है । यहाँ का हिन्दी अर्थ हूबहू मूलके ही अनुसार किया गया है। मूलमें जो वर्तनाका लक्षण " द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिदं वर्तना" किया गया है वही - " द्रव्योंके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है" हिन्दी अर्थ में व्यक्त किया गया है। अपनी ओरसे न तो किसी शब्दको वृद्धि की है और न अपना कोई नया विचार ही उसमें प्रविष्ट किया है । अतः यदि इस हिन्दी अर्थको गलत कहा जायगा तो मूलको भी गलत बताना होगा। किन्तु मूलको गलत नहीं बतलाया गया है और न वह गलत हो सकता हैं प्रतीत होता है। कि पंडितजीने मूलपर और सिद्धान्तग्रंथों में प्रतिपादित वर्तनालक्षणपर ध्यान नहीं दिया और यदि कुछ दिया भी हो तो उसपर सूक्ष्म तथा गहरा विचार नहीं किया । । - १२८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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