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________________ 2 डा. सत्यकाम वर्मा वर्गों का विभाजन' आज के भाषा-विषयक अध्ययन की जो महत्त्वपूर्ण देने मानी जाती हैं, उनमें से वर्णभागों या अल्लाफोन्स की स्वीकृति भी एक है. वर्ण को आधुनिक परिभाषा में 'फोनीम' कहा जाता है. जब कोई ध्वनि वर्ण की पूर्णस्थिति तक न जाकर बीच में ही रह जाती है, उसे 'अल्लाफोन्स' के नाम से स्मरण किया जाता है. आज जिसे वर्तमान भाषा-विज्ञान की अपूर्व देन समझा जाता है. यहाँ हम यह दिखाने का प्रयास करेंगे, कि उसका अध्ययन कितनी गहराई के साथ प्राचीन भारतीय वैयाकरणों ने किया था. कुछ अवधेय परिभाषाएं- इस विषय में सबसे प्रथम सहायक परिभाषा हमें यास्क के निरूक्त में मिलती है. धातुभिन्न किसी 'पदभाग' की केवल वर्णसाम्य के आधार पर उसने कल्पना की है : 'पदेभ्यो पदान्तरार्धान् संचस्कार' (निरुक्त). पदान्तर या पदान्तरार्ध संज्ञा भाषा, वैज्ञानिक महत्त्व की है. इसी समय के प्रातिशाख्यों में एक नई परिभाषा 'अपिनिहिति' के रूप में सामने आई. 'आत्मा' 'इध्य' आदि शब्दों में जहां भी संधि-नियमों के विरुद्ध-कार्य होता दिखाई दिया (और बाद में अपभ्रंश आदि में उनका स्थानान्तरण किसी और वर्ण द्वारा हुआ), वहां ही उन्होंने 'अपिनिहिति' के रूप में एक अस्पष्टोच्चरित ध्वनि की अन्तर्वत्तिनी सत्ता को स्वीकार कर लिया. यह पाणिनि के 'वॉयड्' या 'जीटो' से भिन्न स्थिति है. पाणिनि ने ऐसी अपूर्ण स्थिति कुक्, टुक्, ङमुट्, धुट आदि आगमों की स्वीकार की है, जिनके द्वारा आगत ध्वनियाँ सुनाई न देकर भी अपना प्रभाव छोड़ती दिखाई देती हैं.२ परन्तु पाणिनि इस विषय में दो परिभाषाएँ ऐसी देते हैं, जिन पर विचार अत्यावश्यक हो जाता है. ये हैं- ह्रस्वादेश और सवर्ण. 'ह्रस्वादेश' से हमें केवल यही पता चलता है कि वर्ण अपनी स्थिति और मात्रा आदि बदल सकते हैं. किन्तु 'सवर्ण' की परिभाषा हमें कुछ और ही संकेत करती है. आस्य और प्रयत्न की समानता के आधार पर सवर्ण (तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम् ) सिद्ध करने के बाद, जब वे प्रत्येक व्यंजनवर्ग को सवर्ण (अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः) कहते हैं, तब समस्या यह उठती है कि क्या क्-ख-ग-घ-ङ् आदि में भी कुछ वैसी ही समानता है, जैसी अ-आ-अं आदि में पाई जाती है ? पाणिनि इसका उत्तर 'हाँ' में ही देते हैं. तो, क्या यह समानता केवल मुखगत उच्चारणसाम्य के कारण ही है ? सवर्ण का अर्थ है समान वर्ण. अर्थात् इन तथाकथित सवर्णों में वर्णात्मक या ध्वन्यात्मक साम्य भी मूलत: निहित होता है. तथाकथित वर्ग के पांचों वर्गों में 'क्' की-सी ध्वनि का कुछ अंश अवश्य उपस्थित रहता है. फिर यदि 'कण्ठय' होने के कारण भी उनकी ध्वन्यात्मक समानता स्वीकार की जाए, तब भी उनमें 'ध्वनि-तरंगों' की कुछ अंश तक समानता स्वीकार करनी पड़ेगी, उन सब की ध्वनि-तरंगें एक ही स्थान से जो उठती हैं ! परन्तु, सवर्णों और 'हस्वादेशो' की इस समस्या को अधिक स्पष्ट करने का श्रेय पतंजलि को ही मिलता है. उन्होंने ही हमें सर्वप्रथम 'वर्णकदेश' और 'उत्तरपदभूयस्' जैसी वैज्ञानिक परिभाषाएँ दी. ह्रस्वादेश हों, सन्धिनियम हों, सन्ध्यक्षरों १. २६ वें अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्यविद्या-सम्मेलन में -लेखक द्वारा पढ़े गए एक लेख के आधार पर. २. इसकी विशेष चर्चा देखें लेखक के लेख-वर्णभाग में, 'भारतीय साहित्य', जनवरी-१९६१ ई०. Jain Elidation internate Useru meimeterary.org
SR No.211883
Book TitleVarno ka Vibhajan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyakam Varma
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size348 KB
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