________________
पंचम खण्ड : ६४१
शद्र, कोई भी हो, सब मनुष्योंके लिए धर्मका द्वार समान रूपसे खुला हुआ है। उच्चगोत्री तो रत्नत्रयके पात्र हैं ही, जो नीचगोत्री हैं वह भी रत्नत्रयका पात्र हैं। धर्मकी महिमा बहत बड़ी है। कुल शुद्धि जैसे कल्पित आवरणोंके द्वारा उसके प्रवाहको रोकना असम्भव है (पृ० १३५ व १३८)
___"जाति-मीमांसा' में विद्वान् लेखकने प्रचलित जातिवादके अहितकर परिणामों तथा उसकी निस्सारता पर प्रकाश डाला है, और पाठकोंका ध्यान इस तथ्यकी ओर आकृष्ट किया है कि कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, प्रभृति प्राचीन प्रामाणिक आचार्यपुंगवों तथा उनके परवर्ती जटासिंहनंदि, रविषेण, अकलंक, जिनसेन पुन्नाटसंघी. गुणभद्र, अमितगति, प्रभाचन्द्र, शुभचन्द्र आदि अनेक आचार्यप्रवरोंने जातिवादका निषेध ही किया है और गुणपक्षकी ही स्थापना की है। वस्तुतः प्राचीन आचार्योंने प्रायः सर्वत्र लौकिक जातिमद एवं कूलमदको नीचगोत्रके आस्रव-बन्धका मुख्य कारण घोषित किया है।
वर्णमीमांसामें वर्णव्यवस्था सम्बन्धी ब्राह्मणधर्म तथा जैनधर्मकी दृष्टियोंकी तुलनात्मक समीक्षा करते हए विद्वान लेखकने षटकर्म व्यवस्था, शद्र वर्ण और उनका कर्म, वर्ण और विवाह, स्पश्यास्पर्श विचार आदि प्रसंगोपात्त प्रश्नोंका जैन दृष्टिसे समाधान किया है । उसी प्रकार, ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्ति और उसके कर्मका उभय परम्पराओंकी दृष्टिसे विवेचन किया है और यह भी सिद्ध करनेका प्रयास किया है कि यज्ञोपवीत भी ब्राह्मण परम्पराकी ही देन है । जैन परम्परामें वह कभी स्वीकृत नहीं रहा। इस प्रसंगमें पुस्तकके पृ० २२८ पर किसी भूलसे पं० बनारसीदासके स्थानमें पण्डित आशाधरका नाम छप गया है-उद्धृत घटना एवं पंक्तियाँ पं० बनारसीदासके 'अर्धकथानक' की हैं।
"जिनदीक्षाधिकारमीमांसा' में आगम साहित्य, कुन्दकुन्दाचार्यकी कृतियों, मूलाचार, वरांगचरित, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थोंके आधारसे निष्कर्ष निकाला गया है कि शुद्रवर्णके मनुष्य भी मुनि दीक्षा लेकर मोक्षके अधिकारी हैं, और यह कि इस विषयमें जैन परंपराके जितने भी सम्प्रदाय है, उनमें मतभेद नहीं रहा है (पृ० २४०)। आहारग्रहणमीमांसामें दान देनेका अधिकारी कौन है, देय द्रव्यकी शुद्धि, आहारके ३२ अन्तराय आदिका विवेचन है । समवसरणप्रवेशमीमांसा तथा जिनमन्दिर-प्रवेश मीमांसाके प्रसंगमें यह सिद्ध करनेका प्रयास किया गया है कि शूद्र जिनमन्दिरमें जायें, इसका कहीं निषेध नहीं है (पृ० २५२ व २५८ आदि)। आवश्यक-षटकर्म-मीमांसामें भी महापुराणकारके मतकी पर्यालोचना की गई है, और कहा गया है कि 'जैनधर्म' में वर्णाश्रम धर्मको प्रथा महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेनने चलाई है। इसके पहले जैनधर्ममें श्रावकधर्म और मनिधर्म प्रचलित था, वर्णाश्रम धर्म नहीं । तीन वर्णके मनुष्य दीक्षाके योग्य हैं तथा वे ही इज्या आदि षटकर्मके अधिकारी हैं, ये दोनों विशेषताएँ वर्णाश्रम धर्ममें ही पाई जाती हैं, श्रावकधर्म और मुनिधर्मका प्रतिपादन करनेवाले जैनधर्ममें नहीं । इसके अनुसार तो मनुष्यमात्र (लब्धपर्याप्त और भोगभूमिजा मनुष्य नहीं) श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षाके अधिकारी हैं । तथा वे इन धर्मोंका पालन करते हुए सामायिक आदि षट्कर्मोके भी अधिकारी हैं (पृ० २८७)।
विद्वान लेखकने अपने विषय-विवेचनमें सर्वमान्य प्रामाणिक शास्त्रीय आधारों, पौराणिक दृष्टान्तों तक र युक्तियोंका यथोचित अवलम्बन लिया है। उनके किन्हीं मन्तव्यों, निष्कर्षों, तर्कों और शास्त्रीय व्याख्याओं से सम्भव है कि कहीं-कहीं किन्हीं पाठकोंको कोई मदभेद भी हो, तथापि समग्र विवेचन के उनके इस अन्तिम निष्कर्षसे कि-'आगमका सम्बन्ध केवल मोक्षमागसे है, सामाजिक व्यवस्थाके साथ नहीं। सामाजिक व्यवस्थाएँ बदलती रहती हैं, परन्तु मोक्षमार्गकी व्यवस्था त्रिकालाबाधित है। उसमें परिवर्तन नहीं हो सकताकिसी भी प्रबुद्ध एवं विवेकशील व्यक्तिको कोई आपत्ति हो सकती है, ऐसा प्रतीत नहीं होता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org