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लेश्या : एक विश्लेषण
लेश्या: एक विश्लेषण
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लेश्या जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त को समझने में लेश्या का महत्त्व - पूर्ण स्थान है। इस विराट विश्व में प्रत्येक संसारी आत्मा में प्रतिपस प्रतिक्षण होने वाली प्रवृत्ति से सूक्ष्म कर्म पुमलों का आकर्षण होता है । जब वे पुद्गल स्निग्धता व रूक्षता के कारण आत्मा के साथ एकमेक हो जाते हैं तब उन्हें जैनदर्शन में 'कर्म' कहा जाता है ।
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लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं । उनमें से एक समूह का नाम लेश्या है। उत्तराध्ययन की बृहत् वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आमा, कान्ति, प्रभा और छाया किया है ।' मूलाराधना में शिवार्य ने लिखा है "लेश्या छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव परिणाम हैं। प्राचीन साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उनसे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या पर विश्लेषण किया गया है। शरीर का वर्ण और आणविक आभा को द्रव्यलेश्या कहा जाता है और विचार को भावलेश्या । द्रव्यलेश्या पुद्गल है। पुद्गल होने से वैज्ञानिक साधनों के द्वारा भी उन्हें जाना जा सकता है और प्राणी में योगप्रवृत्ति से होने वाले भावों को भी समझ सकते हैं । द्रव्यलेश्या
के पुद्गलों पर वर्ण का प्रभाव अधिक होता है । वे पुद्गल कर्म, द्रव्य कषाय,
हैं । किन्तु दारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, शब्द, रूप, रस, आने वाले पुद्गल हैं अतः इन्हें प्रायोगिक पुद्गल कहते हैं । यह इनके अभाव में कर्म - बन्धन की प्रक्रिया भी नहीं होती ।
गन्ध, आदि से सत्य है कि ये
आत्मा जिसके सहयोग से कर्म में लिप्त होती है, वह लेश्या है । तो इस प्रकार कर सकते हैं कि पुद्गल द्रव्य के संयोग से होने वाले जीव के
।
* देवेन्द्र मुनि शास्त्री
द्रव्य-मन, द्रव्य भाषा के पुद्गलों से स्थूल सूक्ष्म हैं । ये पुद्गल आत्मा के प्रयोग में पुद्गल आत्मा से नहीं बंधते हैं, किन्तु
लेश्या का व्यापक दृष्टि से अर्थ करना चाहें परिणाम और जीव की विचार-शक्ति को
से
प्रभावित करने वाले पुद्गल द्रव्य और संस्थान के हेतुभूत वर्ण और कान्ति भगवती सूत्र में जीव और अजीव दोनों की आत्म-परिणति के लिए लेश्या शब्द व्यवहृत हुआ है । जैसे चूना और गोबर दीवार का लेपन किया जाता है वैसे ही आत्मा पुण्य-पाप या शुभ और अशुभ कर्मों से लीपी जाती है अर्थात् जिसके द्वारा कर्म आत्मा में लिप्त हो जाते हैं वह लेश्या है ।" दिगम्बर आचार्य वीरसेन के शब्दों में, 'आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है । मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से होता है क्या वे ही लेश्या हैं ? पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में अकलंक ने भी उसी का अनुसरण किया है।"
सार यह है कि केवल कषाय और योग लेश्या नहीं है, किन्तु कषाय इसलिए लेश्या का अन्तर्भाव न तो योग में किया जा सकता है न कषाय में। क्योंकि अवस्था समुत्पन्न होती है, जैसे शरबत । कितने ही आचार्य मानते हैं कि लेश्या में की प्रधानता होती है । क्योंकि केवली में कषाय का अभाव होता है, किन्तु योग शुक्ल लेश्या है ।
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षट्खण्डागम की धवला टीका में लेश्या के सम्बन्ध में निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रय, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प-बहुत्व प्रभृति अधिकारों के द्वारा
और योग दोनों ही उसके कारण हैं । इन दोनों के संयोग से एक तीसरी कषाय की प्रधानता नहीं अपितु योग की सत्ता रहती है, इसलिए उसमें
कर्म, लक्षण, गति, लेश्या पर चिन्तन
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