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0 डा० महावीर राज गेलड़ा [प्रवक्ता-श्री डूंगर कालेज बीकानेर, सम्पादक–अनुसंधान पत्रिका, जैनदर्शन एवं विज्ञान के समन्वयमूलक अध्ययन में संलग्न]
चेतन, शुद्ध, निर्मल आत्मा का जड़ कर्मो के साथ मिलन क्यों होता है-इसकी शास्त्रीय व्याख्या के साथ-साथ वैज्ञानिक व्याख्या एवं विश्लेषण भी बड़ा मननीय है।
भौतिक-रसायन विद्या के विद्वान डा० गेलड़ा का समन्वयJ मूलक यह लघु निबंध गम्भीरतापूर्वक पढ़िए ।
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लेश्या : एक विवेचन
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जैनदर्शन के कर्म-सिद्धान्त को समझने में लेश्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक संसारी आत्मा की प्रतिसमय होने वाली प्रवृत्ति से सूक्ष्म पुद्गलों का आकर्षण-विकर्षण होता रहता है। आत्मा के साथ अपनी स्निग्धता व रूक्षता को लिए ये सूक्ष्म पुद्गल जब एकीभाव हो जाते हैं तो वे कर्म कहलाते हैं । जैनदर्शन की 'कर्म' की परिभाषा अन्य दर्शनों से भिन्न है।
मन, वाणी और काय योग से होने वाली प्रवृत्ति तो स्थूल होती है लेकिन इस प्रवृत्ति के कारण आत्मा के साथ एकीभाव होने वाले कर्म-पुद्गल अति सूक्ष्म होते हैं। ये प्रतीक के रूप में होते हैं। कर्म-बन्धन प्रक्रिया में, एक अन्य प्रकार के पुद्गल जो अनिवार्य रूप से सहयोगी होते हैं, स्थूल पुद्गलों का प्रतीक (कर्म) निश्चित करते हैं, वे द्रव्य लेश्या कहलाते हैं । द्रव्य लेश्या के अनुरूप आत्मा के परिणाम भाव लेश्या कहलाते हैं । द्रव्य लेश्या पुद्गल हैं, अत: वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से भी जाने जा सकते हैं और प्राणी में योग प्रवृत्ति के अनुरूप होने वाले भावों को भी समझा जा सकता है । द्रव्य लेश्या के पुद्गल वर्ण-प्रभावी अधिक होते हैं । ये पुद्गल कर्म, द्रव्य कषाय, द्रव्य मन, द्रव्य भाषा के पुद्गलों से स्थूल हैं लेकिन औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, शब्द आदि से सूक्ष्म हैं । ये आत्मा के प्रयोग में आने वाले पुद्गल हैं, अतः ये प्रायोगिक पुद्गल कहलाते हैं । ये आत्मा से नहीं बंधते लेकिन कर्म-बन्धन प्रक्रिया मी इनके अभाव में नहीं होती।
'लिश्यते-श्लिष्यते आत्मा कर्मणा सहानयेति लेश्या'-आत्मा जिसके सहयोग से कर्मों से लिप्त होती है वह लेश्या है। लेश्या योग परिणाम है। योगप्रवृत्ति के साथ मोह कर्म के उदय होने से लेश्या द्वारा जो कर्म बन्ध होता है वह पाप कहलाता है, लेश्या अशुभ कहलाती है। मोह के अभाव में जो कर्म बन्ध होता है वह पुण्य कहलाता है, लेश्या शुभ कहलाती है । लेश्या छः हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म, शुक्ल । प्रथम की तीन अशुभ कहलाती हैं, वह शीत-रूक्ष स्पर्श वाली हैं । पश्चात् की तीन लेश्या शुभ हैं, उष्ण-स्निग्ध स्पर्श वाली हैं।
प्राचीन जैन आचार्यों ने लेश्या का गहरा विवेचन किया है और वर्ण के साथ आत्मा के भावों को सम्बन्धित किया है। नारकी व देवताओं की द्रव्य लेश्या को उनके शरीर के वर्ण के आधार पर वर्गीकरण किया है। द्रव्य लेश्या पौद्गलिक है, अत: वैज्ञानिक अध्ययन से इसे भली-भाँति समझा जा सकता है।
आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में लेश्या को समझने के लिए इसके दो प्रमुख गुणों को समझना आवश्यक होगा(१) वर्ण, (२) पुद्गल की सूक्ष्मता।
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