________________
प्रमाण की निर्गत हुई, जिसके पृष्ठभाग पर लिखा है कि 'संवत् १३०३ आ.शु. ४ ललित सा.' यह बिंब भी ७०० वर्ष प्राचीन है।
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - - इतिहास
विक्रम संवत्सर १४२७ के मार्गशीर्ष मास में जयानंद नामा जैन मुनिराज अपने गुरुवर्य के साथ निमाड़ प्रदेश स्थित तीर्थक्षेत्रों की यात्रार्थ पधारे, उनकी स्मृति में उन्होंने दो छंदों में विभक्त प्राकृतमय 'नेमाड़ - प्रवास' गीतिका बनाई, उन छंदों से भी जाना जा सकता है कि उस समय नेमाड़ प्रदेश कितना समृद्ध था और लक्ष्मणी भी कितना वैभवशाली था ।
मांडव नगोवरी सगसया, पंच ताराउर वरा, विंस - इग सिंगारी - तारण, नंदुरी द्वादश परा । हत्थणी सग लखमणी उर, इक्क सय सुह जिणहरा, भेटिया अणुवजणवए, मुणि जयाणंद पवरा ।। १ ।। लक्खातिय सहस बिपणसय, पण सहस्स सग सया, सय इगविसं दुसहसि सयल, दुन्नि सहस कणय मया । गाम गामि भक्ति परायण, धम्माधम्म सुजागणगा, मुणि जयानंद निरक्खिया, सबल समणोवासगा ।। २ ।।
मंडपांचल में ७०० जिनमंदिर एवं तीन लाख जैनों के घर, तारापुर में ५ मंदिर ५०० श्रावकों के घर, तारणपुर में २१ मंदिर ७०० जैनधर्मावलम्बियों के घर, नान्दूरी में १२ मंदिर २१०० श्रावकों के घर, हस्तिनीपत्तन में ७ मंदिर २००० श्रावकों के घर और लक्ष्मणी में १०१ जिनालय एवं २००० जैनधर्मानुयायियों के घर धन धान्य से सम्पन्न, धर्म का मर्म समझने वाले एवं भक्तिपरायण देखे, आत्मा में प्रसन्नता हुई। लक्ष्मणी, लक्ष्मणपुर, लक्ष्मणीपुर आदि इस तीर्थ के नाम हैं ऐसा यहाँ पर अस्तव्यस्त पड़े पत्थरों से जाना जाता है।
लक्ष्मणी का पुनरुद्धार एवं प्रसिद्धि
पूर्वलिखित पत्रों से विदित है कि यहाँ पर भिलाले के खेत में से १४ प्रतिमाएँ भूनिर्गत हुईं तथा आलिराजपुरनरेश ने उन प्रतिमाओं को तत्रस्थ श्री जैन श्वेताम्बर - संघ को अर्पित किया। श्रीसंघ का विचार था कि ये प्रतिमाजी आलिराजपुर लाई जाएँ, परंतु नरेश के अभिप्राय से वहीं मंदिर बँधवा कर मूर्तियों को स्थापित करने का विचार किया गया जिससे उस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व प्रसिद्धि में आये।
bimbram
Jain Education International
उस समय श्रीमदुपाध्यायजी श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज (वर्तमान आचार्यश्री) वहाँ विराज रहे थे। आपके सदुपदेश से नरेश ने लक्ष्मणी के लिए (मंदिर, कुआँ, बगीचा, खेत आदि के निमित्त) पूर्व - पश्चिम ५११ फीट, उत्तर-दक्षिण ६११ फीट भूमि श्रीसंघ को अमूल्य भेंट दी और आजीवन मंदिर - खर्च के लिए ७१ रु. प्रतिवर्ष देते रहना स्वीकृत किया।
महाराजश्री का सदुपदेश, नरेश की प्रभुभक्ति एवं श्रीसंघ का उत्साह इस प्रकार के भावना त्रिवेणीसंगम से कुछ ही दिनों में भव्य त्रिशिखरी प्रासाद बन कर तैयार हो गया। आलिराजपुर, कुक्षी, बाग, टाँडा आदि आसपास के गांवों के सद्गृहस्थों ने भी लक्ष्मी का सद्व्यय करके विशाल धर्मशाला, उपाश्रय, ऑफिस, कुआँ, बावडी आदि बनवाए एवं वहाँ की सुंदरता विशेष विकसित करने के लिए एक बगीचा भी बनाया गया, जिसमें गुलाब, मोगरा, चमेली, आम आदि के पेड़ लगाए गए।
जो एक समय अज्ञात तीर्थस्थल था, वह पुनः उद्धरित हो जनता में प्रसिद्ध हुआ । मिट्टी के टीलों को खुदवाने पर बहुत सी ऐतिहासिक चीजें प्राप्त हैं। प्राचीन समय के बर्तन आदि भी । बगीचे के निकटवर्ती खेत में ४-५ प्राचीन मंदिरों के पब्बासन प्राप्त हुए ।
प्रतिष्ठाकार्य
वर्तमान आचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी ने जो उस समय उपाध्यायजी थे, वि.सं. १९९४ मार्गशीर्ष शुक्ला १० को अष्टदिनावधि अष्टाह्निका महोत्सव के साथ बड़े ही हर्षोत्साह से शुभलग्नांश में नवनिर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा की । तीर्थाधिपति श्री पद्मप्रभस्वामीजी गादीनशीन किए गए और अन्य मूर्तियाँ भी यथास्थान विराजमान कर दी गईं। प्रतिष्ठा के दिन नरेश ने रु. २००१ भेंट किये और मंदिर की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। सचमुच सर प्रतापसिंह नरेश की प्रभुभक्ति एवं तीर्थ-प्रेम सराहनीय है।
प्रतिष्ठा के समय मंदिर के मुख्यद्वार-गंभारा के दाहिनी ओर एक शिलालेख संगमरमर के प्रस्तर पर उत्कीर्ण करवाकर लगाया गया जो निम्न प्रकार है-
mormónovambran proposa
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org