________________
३४४ पं० धगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
कटरा जैन मन्दिर की दूसरी वेदी का निर्माण बहुत पुराना नहीं है, फिर भी उस पर विराजमान अनेक घातुमय, पाषाण एवं संगमरमर की ३२ मूर्तियों में संवत् १६९४ ( १६३७ ई० ) से लेकर सन् १९५५ तक की प्रतिष्ठित मूर्तियाँ हैं। इनमें एक पीतल की चौबीसी मी है। इनमें अनेक मूर्तियाँ पर महत्वपूर्ण लेख हैं जिनसे तत्कालीन मट्टारक परम्परा एवं जैन कुल परम्पराओं का पता चलता है । प्रस्तुत विवरण में इनमें से कुछ मूर्तियों पर टंकित महत्वपूर्ण लेख दिये जा रहे हैं।
पीतल की चौबीसी का लेख
इस चौबीसी का लेख इस वेदी की प्रतिमाओं में सबसे प्राचीन है । यह लेख सं० १६९४ ( १६३७ ई० ) का है : संवत् १६९४ वैसाख वदी ६ बुध, भट्टारक ललित कीर्ति, तत्पट्टे मट्टारक धर्मकीर्ति, तत्पुत्र सकलचंद्र भट्टारक आचार्य श्री पद्मकीर्ति तत्पट्टे गुणकरमे, हजरतशाह उग्रसेन मूल संघे बलात्कार गणे घनामूर कासल्ल गोत्र राघोबा, आशादास, द्वारिकी तत्पुत्र राममनोहर स० वन्दे प्रणमति लेखक हीरामन ।
इस लेख में ललितकीर्ति, धर्मकीर्ति, सकलचन्द्र, पद्मकीर्ति एवं गुणकर भट्टारकों की परंपरा दी गई है । यही परंपरा छतरपुर के चौधरी मंदिर की मेरु प्रशस्ति ( १२२४ ) में कुछ परिवर्तन के साथ है। साथ ही राघोबा आशादास के
- गोत्र देने से ज्ञात होता है कि यह चौबीसी पौरपट्टान्वयी भक्त ने प्रतिष्ठित कराई है। इसमें प्रतिष्ठा या प्रतिष्ठापक का स्थान – विशेष उल्लिखित नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस लेख के भ० ललितकीर्ति दिल्ली गद्दी के १८६१ के भट्टारक से भिन्न है ।
पद्मासन पार्श्वनाथ की मूर्ति का लेख
यह संवत १७१३ ( १६५६ ई० ) का लेख है। इसमें भट्टारक परंपरा और प्रतिष्ठापक कुल-परंपरा का उल्लेख है ।
संवत् १७१३ मार्गशीर्ष सुदी ४ देशस्थ रविवासरे श्री मूलसंघ बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे दत्तंदावनान्वये तत्परायोगे भट्टारक श्री ललितकीर्ति तत्पट्टे धर्मकीर्ति देवजू, तत्पट्टे पं० पद्मकीर्ति देव पं० सकलकीति गुरूपदेशात् पौरपट्टे अष्टसाखान्वये सं० ग्राहकदास चौ० फड़न समावते पं० श्री द्वारकादास सं० परसोत्तम साहू बहे चोपड़ागामे निरमोली कपूरचंद ८४ नली सो० वनिता भवि तदेतत् प्रणमति । चतुरनसिंह कमलकली जगोले रामचंद्र प्रणोति सः एतत् प्रणमति ।
इस लेस में ललितकीर्ति, धर्मकीर्ति, पद्मकीर्ति और सकलकीर्ति ( पं० ) की परंपरा दी गई है । नेमचंद्र शास्त्री के अनुसार धर्मकीर्ति का समय १९८८ - १६२५ ई० माना जाता है। इस आधार पर पं० सकलकीर्ति का और प्रतिष्ठा का समय भी सही बैठता है । लेकिन पं० सकलकीर्ति एवं पद्मकीति के विषय में पूर्ण जानकारी उपलब्ध नहीं है । यह मूर्ति भी चोपड़ा ग्राम के अष्टशाखान्वयी पोरपट्ट भक्त ने प्रतिष्ठित कराई थी ।
३. पीतल के मानस्तंभ पर लेख
यह लेख सं० १८७१ ( १८१४ ई० ) का है । इसमें मट्टारक परंपरा तो नहीं दी गई है, पर चन्द्रपुरी भट्टारक का नाम अवश्य है । प्रतिष्ठापक भक्त के गोत्र मूर से उसका पौरपट्टान्वयी होना सिद्ध होता है ।
सं० १८७१ फागुन वदी ४ श्री मूलसंधे सरस्वतीबलात्कारगणे श्री आचार्य कुंदकुंदान्वये मखावली चंद्रपुरी भट्टारक जी श्री चौधरी उमरावजी, चौधरी कुंवर जू पद्मामूरी कोछल्ल गोत्र हटा घीवाले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org