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________________ भी करना पड़ा था। धर्म के व्यावहारिक रूप को देखकर वे कटु हो उठे थे। नवजागरण के बीच हर समझदार को जिन समस्याओं से टकाराना पड़ा था उनमें ही एक हिन्दू और मुसलमान की समस्या थी। दोनों धर्मों के व्यवहार पक्ष की भूमिका का उल्लेख ऊपर किया गया है। किन्तु इसके तल में प्रवेश कर राहुलजी ने कहा था कि “इस समस्या की बुनियाद किसी मजबूत पत्थर पर नहीं है। कोई आर्थिक प्रश्न ऐसा नहीं है जो इस समस्या की जड़ में हो और आर्थिक प्रश्न ही किसी बात को मजबूत बनाता है। यह सारा झगड़ा उच्चवर्ग और मध्यवर्ग का बनाया है। हिन्दू मुस्लिम झगड़ों से उनका (बड़ों का) कोई नुकसान नहीं होता। मरते और जेल जाते हैं, तो साधारण गरीब लोग।" राहुल जी के इस विश्लेषण में उल्लेखनीय है किसी वस्तु के विरोध में अर्थ की भूमिका एवं गरीबों को मौलवाद से अलग करके देखना। आज की राजनीति में वस्तुत: इस धार्मिक मुद्दे को लेकर जितना परेशान उच्चवर्ग या मध्यवर्ग है, उतना गरीब या किसान मजदूर नहीं। पारस्परिक भाई-चारे के द्वारा इस समस्या का समाधान संभव है बशर्त मौलवादियों की भूमिका ध्यान में रहे। राहुल का कहना है, उच्च और मध्यवर्ग के चरित्र का पर्दाफाश करना आवश्यक है। प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य तथा प्रबंधों में यह काम किया था। सामन्ती समाज व्यवस्था की ही उपज एक और समस्या हमारे बीच बार-बार आती रही है और हम उसके सही उपचार की अपेक्षा सामयिक मरहम पट्टी कर देते रहे हैं। राहुल ने लिखा है कि "समाज की बेड़ियां जेलखाने की बेड़ियों से भी सख्त है।" अछूत या हरिजन समस्या इसी तरह की एक सामाजिक व्याधि है। वर्णव्यवस्था की जंजीरों से जकड़ा अभिशप्त अछूतों का वृहत वर्ग अपनी सामाजिक मुक्ति के लिए तड़फड़ा रहा है। न जाने कब और किस अशुभ घड़ी में इस व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ था मगर आज भी वह गुंजलक मारकर बैठी हुई है। कभी हम उसको धार्मिक पूजा पाठ के बहाने मंदिर प्रवेश की ओर ठेलते हैं तो कभी सामाजिक न्याय के नाम पर नौकरी के टुकड़े फेंकते रहे हैं। इस प्रकार सतही समाधान कर अपनी उदारता का दंभ करते हैं। इस मंडल और कमंडल के बीच उन्हें झूठे और सामयिक भुलावे में रखे हुए हैं। राहुलजी ने इस पर लिखा है कि “धर्म पुस्तकें इस अन्याय के आध्यात्मिक और दार्शनिक कारण पेश करती हैं।" यह भेद भाव हिन्दू-मुसलमान दोनों में है। मुसलमानों में भी मोमिन और गैर मोमिन का सवाल पैदा होता है। राहुलजी ने अछूत समस्या के मूल में आर्थिक स्वतंत्रता का अभाव बताते हुए लिखा है कि “(हरिजनों) उनके लिए मंदिरों के द्वार खोलने के लिए प्रचार करने में हमें समय नहीं खोना चाहिए। यह काम केवल व्यर्थ ही नहीं, बल्कि खुद हरिजनों के लिए खतरनाक भी है। यह पुरोहितों की चालाकी और धर्मान्धता ही है जो कि उनकी वर्तमान अधोगति का कारण है। इन सरल मनुष्यों को ऐसी सरल सस्ती औषधि न दीजिए। पुजारी, धर्म और मन्दिर को जहन्नुम में जाने दीजिए। अगर आपके सामने अपने देश और अपने लिए कोई आदर्श है तो उनकी (हरिजनों) आर्थिक विषमताओं का अध्ययन कीजिए और उनको दूर करने की चेष्टा कीजिए। औद्योगिक योजना में सरकार हरिजनों को अधिक से अधिक आगे बढ़ाने का अवसर प्रदान कर सकती है।" इन विषयों के अलावा भी राहुलजी ने जमींदारी, किसान, खेतिहर-मजदूर, शिक्षा, सदाचार, समाज जैसे विषयों पर भी विचार किया है। इस दृष्टि से उनकी पुस्तक “दिमागी गुलामी” एवं “तुम्हारी क्षय" पठनीय है। इसी तरह “साम्यवाद ही क्यों" पुस्तक में उन्होंने सरल भाषा में साम्यवाद के मुद्दों का परिचय दिया। ये तीनों पुस्तकें राहुलजी की समाज चेतना को समझने में बड़े काम की हैं। राहुल की समाज चेतना के दर्शनिक आधार की जानकारी के लिए उनकी पुस्तक “दर्शन दिग्दर्शन" का अध्ययन आवश्यक है। जिसमें उन्होंने विविध दार्शनिक धाराओं का मूल्यांकन कर अनात्मवादी लोकायत दर्शन की ओर दृष्टि आकर्षित की है। राहुल का सारा प्रयास रूढ़ियों से मुक्ति का प्रयास है। मानसिक दासता से मुक्ति पाने के लिए राहुल ने कहा है कि "हमें अपनी मानसिक दासता की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार होना चाहिए। बाहरी क्रांति से कही ज्यादा जरूरत मानसिक क्रांति की है।" मानसिक दासता से मुक्ति का प्रयास भी नवजागरण का प्रयास है। प्रश्न है क्या हम मानसिक दासता की बेड़ी तोड़ने को तैयार हैं? हमारे मन में इस प्रश्न को उठा देने में ही आज राहुल की सार्थकता है। राहुल के चिन्तन का मुख्य उल्लेखनीय आयाम है, मानव समाज के विकास की द्वन्द्वात्मक परख। इसी के आधार पर उन्होंने समाज का विश्लेषण कर दुख और दारिद्रय को समझने का प्रयास किया था। कहना न होगा कि यही द्वन्द्ववाद उनके चिन्तन की कसौटी थी। जिससे उन्होंने शोषक, शोषित, अमीर, गरीब, उपेक्षितों को देखा था। शोषकों को राहुल ने जोंक शब्द से संबोधित किया है। परिभाषा है "जोंकजो अपनी परवरिश के लिए धरती पर मेहनत का सहारा नहीं लेतीं। वे दूसरों के अर्जित खून पर गुजर करती हैं। मानुषी जोंकें पाशविक जोंकों से ज्यादा भयंकर होती हैं।” राहुल इन शोषक जोंको का अन्त चाहते थे। इन्हीं ने सामाजिक संतुलन बिगाड़ रखा है, ऐसा उनका विश्वास था। इसी दृष्टि से उन्होंने दो-दो महायुद्धों में लिप्त शक्तियों की पहचान की थी। राहुल की चिन्तन धारा सामन्तवाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद के विरोध की धारा है, जिसने संकीर्णता, मौलवाद, विकृतिवाद, रूढ़िवाद, विच्छिन्नतावाद, साम्प्रदायिकता को विकास के पथ में बाधक माना है। ___ अन्त में राहुल की पुस्तक “भागो नहीं (दुनिया को) बदलो" के प्रथम संस्करण से एक उद्धरण देकर बात खत्म करना चाहूंगा। "मैं किसी एक आदमी को दोषी नहीं मानता। आज जिस तरह का मानुख जाति का ढांचा दिखाई पड़ता है, असल में सब दोष उसी ढांचे का है। जब तक वह ढांचा तोड़कर नया ढांचा नहीं बनाया जाता, तब तक दुनिया नरक बनी रहेगी। ढांचा तोड़ना भी एक आदमी के बूते का नहीं है, इसलिए उन सब लोगों को काम करना है, जिनको इस ढांचे ने आदमी नहीं रहने दिया।" ___ राहुल ने आजीवन ढांचे को तोड़ने का प्रयास किया। ठीक ही है अकेले बस का नहीं था। ढांचे को तोड़ने का प्रयास करना ही उनको स्मरण करना है। हिन्दी विभाग, वर्धमान विश्वविद्यालय हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211858
Book TitleRahul Sanskrutyayan Chintan ki Dishaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Pandey
PublisherZ_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf
Publication Year1994
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size585 KB
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