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रामायणका अध्ययन भारतवर्षकी पुण्यभूमिमें एक वह युग था, जब कि वह धर्मप्रधान भूमि थी, जिसको हम धर्मयुगके नामसे जानते हैं। उस युगमें, पुण्यभूमि भारतमें, जिन-जिन महापुरुषोंने अवतार धारण किया, वे न तो किसी संप्रदायमें सीमित हो कर रहे थे और न किसी संप्रदायने ही उनको अपने घेरेका सीमित व्यक्ति माना था। उस युगमें होने वाले ऋषि-महर्षि भी ऐसे थे, जिन्होंने प्रजाको विशुद्ध धर्मामृतका पान कराया था। यही कारण था कि उस युगको प्रजाका जीवन भी उन्नत, विशद एवं विशाल भावनाओंसे परिपूर्ण था। जिस युगका निर्माण ऋषि-महर्षियोंने किया, उस पवित्र युगको ऋषियुग या धर्मयुग कहना अत्यंत समुचित होगा।
रामायणके वास्तविक अध्ययनकी जिज्ञासा रखनेवालोंके लिए यह नितांत आवश्यक है कि रामायणके विषयमें जो-जो साधन आज भारतमें उपस्थित हों, उन सबोंका अध्ययन एवं अवलोकन करना ही चाहिए । शायद बहुत कम विद्वान महानुभावोंको ही यह ज्ञात होगा कि रामायणके विषयमें जैनाचार्योंने अपनी लेखनी ठीक-ठीक चलाई है। इस लघु लेखमें रामायणके विषयमें जैनाचार्योंने जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया है और जो छोटे-बड़े रामायण ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओंमें लिखे हैं उनका परिचय दिया जाता है।
१. पउमचरियं - यह सबसे प्राचीन एवं विस्तृत रूपमें लिखा गया रामायणकथा ग्रंथ है । इसके प्रणेता नागिलवंशीय स्थविर-आचार्य राहुप्रभके शिष्य स्थविर श्री विमलाचार्य हैं । वीरसंवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६०में या इस्वीसन् ४में इस ग्रंथकी रचना हुई है। प्राकृत भाषामें ९००० आर्यापरिमित यह चरितग्रंथ है। जैनाचार्योंने रामायण-विषयक जो ग्रंथ लिखे हैं, उन सबोंमें यह महाकाय ग्रंथ है। श्री रामचंद्रको जैनग्रंथ एवं जैनाचार्य पद्मनाभसे पहचानते हैं, अतः
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