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राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन / २१५
को भी सामान्य महापुरुष न मानकर विशिष्ट श्रेणी के महापुरुषों में स्थान दिया है। राम बलदेव श्रेणी में हैं तो कृष्ण वासुदेव श्रेणी में यही नहीं जिन पात्रों को जैनेतर कवियों ने घृणित और बीभत्स दृष्टि से देखा है, उन पात्रों को भी यहां समुचित सम्मान दिया गया है रावण भी यहाँ प्रतिवासुदेव श्रेणी का विशिष्ट पुरुष है। दूसरी ओर जैनेतर प्रादर्श पात्रों को अपना वर्ण्य विषय बनाकर उनके व्यक्तित्व की महानता का गान किया है । दलपतिविजयकृत 'खुमाण रासो' इस प्रसंग में द्रष्टव्य है । स्वतन्त्र ग्रन्थनिर्माण के साथ-साथ जैनेतर साहित्यकारों द्वारा रचित जैनेतर ग्रन्थों पर विस्तृत और प्रशंसात्मक टीकाएँ भी लिखी गई हैं। इस घोर बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ कृत 'किसन रूक्मणी री बेलि' पर जैन विद्वानों द्वारा लिखित ७० टीकाओंों का उल्लेख किया जा सकता है। यही नहीं जैन विद्वानों ने जैनेतर प्राचीन ग्रन्थों की रक्षा करना भी अपना राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझा और बड़ी आदर भावना के साथ उनकी सुरक्षा की आज जितने भी जैन भण्डार हैं, उनमें कई प्राचीन । महत्त्वपूर्ण जैनेतर ग्रन्थ संरक्षित है। इससे भी आगे बढ़कर जैन यतियों ने अमूल्य जैनेतर ग्रन्थों को लिपिबद्ध कर उनका उद्धार किया। यही कारण है कि 'बीसलदेव रासो की समस्त पुरानी प्रतियाँ लगभग जैनयतियों द्वारा लिखित उपलब्ध होती हैं ।
जैन काव्य की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इन कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति को स्पष्ट और प्रभावशाली बनाने के लिए विराट् सांगरूपकों की सृष्टि की। ये सांगरूपक लौकिक और तास्विक उपमानों को लेकर निर्मित हुए हैं। इनमें चेतन राजा, प्राध्यात्मिक दीवाली, मन माली, श्रद्धा श्रीदीप, अध्यात्म होली आदि के रूपक बड़े सटीक हैं। पूरे के पूरे पद में इनका निर्वाह बड़ी खूबी के साथ किया हुआ मिलता है। हिन्दी कवियों में गोस्वामी तुलसीदास रूपकों के बादशाह माने गये हैं। उनके ज्ञानदीपक और भक्तिचिन्तामणि के रूपक बड़े सुन्दर बन पड़े हैं पर मुझे तो लगता है कि यहाँ सामान्य रूप से प्रत्येक जैन कवि ने इन बड़े बड़े भव्य रूपकों का सहारा लिया है । तात्त्विक सिद्धान्तों को लौकिक व्यवहारों के साथ 'फिट' बैठाकर ये कवि गूढ़ से गूढ़ दार्शनिक भाव को बड़ी सरलता के साथ समझा सके हैं। निर्गुण सन्त कवियों की तरह विरोध-मूलक वैचित्र्य और उलटबांसियों के दर्शन यहाँ नहीं के बराबर हैं । फिर भी इतना अवश्य है कि कुछ कवियों ने चित्रालंकार काव्य लिखकर अपनी चमत्कारप्रियता का परिचय दिया है। मयूरबन्ध बद्गबन्ध, छतरीबन्ध, धनुषबन्ध, हस्तीबन्ध, भुजबन्ध, स्वस्तिकवन्ध आदि काव्य प्रकार इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं। जैन काव्य में यों तो सभी रस यथास्थान प्रभिव्यंजित हुए हैं पर अंगी रस शान्तरस ही है जैनधर्म की मूल भावना अध्यात्मप्रधान है । वह संसार से विरक्ति और मुक्ति से अनुरक्ति की प्रेरणा देती है । शान्तरस का स्थायी भाव निर्वेद है । यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक कथा - काव्य का अन्त शान्तरसात्मक ही है । इतना सब कुछ होते हुए भी जैनसाहित्य में श्रृंगाररस के बड़े भावपूर्ण स्थल और मार्मिक प्रसंग भी देखने को मिलते हैं । विशेष कर विप्रलंभ श्रृंगार के . जो चित्र हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी और हृदय को विदीर्ण करने वाले हैं। मिलन के राशि राशि चित्र वहाँ देखने को मिलते हैं जहाँ कवि 'संयमश्री' के विवाह की रचना करता है। यहाँ जो श्रृंगारहै वह रीतिकालीन कवियों के भावसौन्दर्य से तुलना में किसी प्रकार कम नहीं है पर यह स्मरणीय है कि यहाँ श्रृंगार शान्तरस का सहायक बनकर ही आता है इस श्रृंगार वर्णन में मन को सुलाने वाली मादकता नहीं, वरन् मात्मा को जागृत करने वाली मनुहार है।
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धम्मो दीयो પ્રો संसार समुद्र में कर्म ही दीप है
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