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प्राकृत भाषा और साहित्य
बीहइ
जंपइ
राजस्थानी (डिंगलगीत)
प्राकृत
हिन्दी घड़े (पृ० ७)
घड़
बनाता है जाचे (२१)
जांचई
मांगता है खांडे (३७)
खण्डइ
तोड़ता है घारै (३६)
धारइ
धारता है बीहै (४५)
डरता है पूरै (४७)
पूरइ
पूरा करता है जंपै (४६)
बोलता है इस प्रकार की अनेक क्रियाएँ राजस्थानी साहित्य में खोजी जा सकती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य क्रियाओं में भी साम्य देखा जा सकता है। राजस्थानी का प्रयोग है - 'कंइ कीधौ' यहां कीधौ प्राकृत की किदो (कृतः) का रूपान्तर है । डिंगल गीत है
'कीधौ ते कोप साझियौ कानौ ।' (वही, पृ० ३)
कीधौ के समान देने के अर्थ में 'दीधौ' का प्रयोग भी होता है। यथा-'रिड़मल ने दीधौ तें राज।' न केवल राजस्थानी में अपितु सिन्ध की कच्छी के मुहावरों में भी इन शब्दों का प्रयोग होता है। यथा
काम कीदौ भलौ।
डांड़ दीदी भलौ। राजस्थानी में न केवल वर्तमान काल की क्रियाओं में, अपितु भविष्यत् काल की क्रियाओं में भी प्राकृत एवं अपभ्रंश के प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं । हेमचन्द्र ने 'वयंति-स्यस्य सः' ।। ३८८ ।। सूत्र द्वारा निर्देश किया है कि अपभ्रंश में भविष्यत् अर्थ में 'ति' आदि में 'स्य' के स्थान पर 'स' विकल्प से आदेश होता है । इसके अनुसार प्राकृत की क्रिया होहिइ (भविष्यति) अपभ्रंश में होसइ हो जाती है ।
___ मारवाड़ी और ढूंढारी के होसी, जासी, करसी एवं बहुवचन में हास्यां जास्यां, करस्यां आदि रूप अपभ्रंश के हासइ जैसे रूपों से ही निष्पन्न हैं। राजस्थानी साहित्य में 'होइसउं' रूप भी मिलता है। ___तो आडी होइस' (अचलदास खीचिरी वचनिका १४,६)
पूर्वकालिक क्रियारूपों के सम्बन्ध में हेमचन्द्र ने कहा है कि अपभ्रंश में क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर इ, इड और इवि और अवि ये चार आदेश होते हैं (४३६) । राजस्थानी में इ को छोड़कर अन्य प्रत्यय वाले रूप नहीं बनते । इ प्रत्यय से बनने वाले रूप अपभ्रंश के अनुरूप हैं । यथाअपभ्रंश
राजस्थानी 'जइ पुण मारि मराहुं,
'जाइ ने आऊं' (तो फिर मारकर ही मरेंगे)
(जाकर और आऊँगा)
'मेल्ही करि' (छोड़ कर) इसी इ वाले करि से हिन्दी में कर प्रत्यय जड़ा है। यथा-खाकर, जाकर, आदि ।
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परा
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