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प्राकृत भाषा और साहित्य
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राजस्थानी की मारवाड़ी बोली में कर्ता एक वचन में प्रतिपादिक ही पद के रूप में प्रयुक्त होता है तथा बहवचनसूचक रूपिम (Magphemes) जोड़ा जाता है। कर्ता की कोई विशेष विभक्ति नहीं होती। मारवाड़ी के उदाहरण दृष्टव्य हैं
(i) छोरो रोटी खा र्यो है । (ii) छोरा रोटी खा र्या है।
इन वाक्यों में 'छोरो' एक वचन में है, उसकी (कर्ता) कोई विभक्ति नहीं है । इसी प्रकार 'छोरा' में 'आ' बहुवचन सूचक है, किन्तु कर्ता में कोई विभक्ति नहीं है । इस प्रकार अन्य विभक्तियों के उदाहरण भी राजस्थानी में खोजे जा सकते हैं, जिनका प्रयोग नहीं होता।
विभक्ति की अदर्शन-प्रवृत्ति से प्रभावित होकर प्राकृत-अपभ्रंश में निपात एवं परसर्गों का प्रयोग होने लगा था । प्राकृत वैयाकरण पुरुषोत्तम ने डा (१८) और डु (२०) प्रत्ययों का प्रयोग बहुवचन में बतलाया है । हेमचन्द्र ने भी अ, डड, डुल्ल इन प्रत्ययों का प्रयोग संज्ञा शब्दों के साथ बतलाया है ।१४ उदाहरण दिया है
'मह कन्तहो वे दोसडा' (मेरे कन्त के दो दोष हैं)।
राजस्थानी में दोसडा, दिवहडा, रुक्खडा, सन्देसडा आदि प्रयोग आज भी होते हैं। स्त्रीलिंग में राजस्थानी में यह प्रत्यय डी हो जाता है । लोकगीतों में 'गोरडी' रूप बह-प्रयुक्त है। सर्वनाम
प्राकृत के सर्वनामों की संख्या अपभ्रंश में न केवल कम हुई है, अपितु उनमें सरलीकरण भी हुआ। है। राजस्थानी में अपभ्रंश के बहुत से सर्वनाम यथावत् आ गये हैं अथवा उनमें बहुत कम परिवर्तन हुआ है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं
'हउं मन्द बुद्धि णिग्गुणु णिरत्थु ।' (भविसयत्त कहा १/२) 'हउँ पुणु जाणमि' (दोहाकोस, १४४)
यहाँ मैं के लिए हर शब्द प्रयुक्त हुआ है। गुजराती में हं के अनेक प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी में साहित्य एवं बोलचाल दोनों में इसका प्रयोग होता है। यथा
'हउँ ऊजालिसि आयणा' (अचलदास खीची-री वचनिका १४-५) 'हउं कोसीसा कंत' (१४-६) 'हं पापी हेक्लौ, सुजस नह जाणां सांमी।' 'हूं वेदां वाहरु किसन' (पीरदान ग्रन्थावली, पृ० ५१-५३) 'हं पाठवी तीणइ तूअ पासि' (सदयवत्स वीरप्रबन्ध, ४८६)
इसी प्रकार अन्य सर्वनामों में भी साम्य दृष्टिगोचर होता है। हेमचन्द्र ने 'किमः काईकवणी वा' ।। ३६७ ।। सूत्र द्वारा कहा है कि अपभ्रंश में किम् शब्द के स्थान पर 'काई' और 'कवण' विकल्प से आदेश होते हैं । यथा
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