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करने वाले महान् बुद्धिमान पंडित टोडरमलजी, तीन पुराणों की वचनिका करने एवं राजदरबार में जाने वाले गुणी विद्वान् दौलतरामजी, गृहवासत्यागी राजमलजी एवं शीलवती महारामजी थे। इन सबकी संगति में रहकर उन्होंने जिनवाणी का रहस्य समझा था ।
दीवान रामचंदजी से इसके अच्छे सम्बन्ध थे। उनके द्वारा आजीविका की साहित्य सेवा की थी। इनके पुत्र पंडित नन्दलालजी भी अच्छे विद्वान् थे, उनसे प्रेरणा निर्माण किया था । उनकी प्रशंसा स्वयं उन्होंने की है ।
नंदलाल मेरा सुत गुनी, पंडित भयो वहाँ परवीन, बडौं
राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार
बालपने तं विद्या सुनी। ताहू ने प्रेरण यह कीन ।।
इनके ग्रन्थों की भाषा सरल, गम्भीर भाव और तात्त्विक गहराइयां जैसे इस लोक विषे सुवर्ण अर रूपा कूं गाति एक किये एक पिण्ड का व्यवहार होय है जैसे आत्मा के अर शरीर के परस्पर एक क्षेत्र की अवस्था ही में एक पणां का व्यवहार है ऐसे व्यवहार मात्र ही करि आत्मा शरीर का एक पणा । बहुरि निश्चय तैं एक पणा नाहीं है । जाते पीला अर पांडुर है स्वभाव जिनिका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है तिनकै जैसे निश्चय विचारिये तब अत्यन्त भिन्न पण करि एक-एक पदार्थ पणा की अनुपस्थिति है । तातै नानापना ही है ।
सुबोध एवं परिमार्जित है, भाषा में जहाँ भी दुरूहता आयी है, उनका कारण रही हैं। इनके गद्य का नमूना इस प्रकार है
पंडित सदासुखदास- पंडितप्रवर जयचन्द जी छावड़ा के बाद हिन्दी भाषा के गद्य भण्डार को समृद्ध करने. बाले किसी दिगम्बर जैन विद्वान का नाम लिया जा सकता है तो वे हैं पंडित सदासुखदास कासलीवाल। इनका जन्म जयपुर में विक्रम संवत् १८५२ तदनुसार ईसवी १७९५ के लगभग हुआ था। क्योंकि वि० सं० १९२० में रचित 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा टीका' की प्रशस्ति में आपने अपने को ६८ वर्ष का लिखा है—
असf वर जु आयु के, बीते तुझ अधार । शेष आयु तब शरण ते, जाहु यही मम सार ॥ १७ ॥
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स्थिरता पाकर उन्होंने विविध पाकर भी इन्होंने साहित्य
आपके पिता का नाम था दुलीचन्द और वे 'डेडाका' कहलाते थे। ये सहनशीलता के धनी और संतोषी विद्वान् थे। अपना अधिकांश समय अध्ययन मनन, पठन-पाठन और लेखन में ही लगाया करते थे ।
आपके द्वारा लिखित ग्रन्थ निम्नानुसार हैं: १. भगवती आराधना भाषा वचनिका वि० सं० १९०६ ३. तत्त्वार्थसूत्र बृहद् भाषा टीका 'अर्थ प्रकाशिका' वि०सं० १९१४
१. हिन्दी साहित्य द्वितीय खण्ड पृ० ५०४.
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इनसे प्रेरणा पाकर एवं अध्ययन कर पं० पन्नालाल संधी, पारसदास निगोत्या जैसे योग्य विद्वान् तैयार हुए थे इनकी विद्वत्ता और सद्गुणों की थाक दूर-दूर तक थी। आरा से परमेष्ठी शाह अग्रवाल ने 'तत्वार्थ सूत्र' पर 'अर्थ प्रकाशिका' नामक टीका पाँच हजार श्लोक प्रमाण लिखकर इनके पास संशोधनार्थ भेजी थी। इन्होंने उसका योग्यतापूर्वक संशोधन कर उसे ११ हजार श्लोक प्रमाण बनाकर उन्हें वापिस भेज दी थी।
वृद्धावस्था में अपने २० वर्षीय इकलौते पुत्र के स्वर्गवास के कारण कुछ टूट से गये थे । इनके शिष्य सेठ मूलचन्द सोनी वियोगजन्य दुःख कम करने की दृष्टि से इन्हें अजमेर ले गये फिर भी ये अधिक काल जीवित नहीं रहे । अन्तिम समय में अपने सुयोग्य शिष्य पन्नालाल संघी आदि को तत्त्व प्रचार करने की प्रेरणा दी जिसे उन्होंने भलीभांति निभाया।
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२. तत्वार्थ सूत्र लघु भाषा टीका वि० सं० १६१०
४. समयसार नाटक भाषा वचनिका वि०सं० १९१४
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