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________________ ५१८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... . . ............................................................... (ख) मुक्तककाव्य-(अ) धार्मिक-तीर्थमाला, संघ वर्णन, पूजा, विनती, चैत्य परिपाटी, ढाल, मातृका, नमस्कार, परिभाति, स्तुति, स्तोत्र, निर्वाण, छंद, गीति आदि। (आ) नीतिपरक-कक्का, बत्तीसी, बावनी, शतक, कुलक, सलोका, पवाड़ा, बोली, गूढा आदि । (इ) विविध मुक्तक रचनाएँ-गीत, गजल, लावणी, हमचढ़ी, हीच, छंद, प्रवहण, भास, नीसाणी, बहोत्तरी, छत्तीसी, इक्कीसो आदि संख्यात्मक काव्य, शास्त्रीय काव्य । (२) गद्य ____टब्बा, बालावबोध, गुर्वावली, पट्टावली, विहार पत्र, समाचारी, विज्ञप्ति, सीख, कथा, ख्यात, टीका ग्रन्थ इत्यादि। जैन साहित्य की इन विधाओं में से कतिपय का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। पद्य काव्य (१) रासौ काव्य-रास, रासक, रासो, राइसौ, रायसौ रायड़, रासु आदि नामों से रासौ नामपरक रचनाएँ मिलती हैं । वस्तुतः भाषा के परिवर्तन के अनुसार विभिन्न कालों में ये नाम प्रचलित रहे। विद्वानों ने रासो की उत्पत्ति विभिन्न रूपों में प्रस्तुत की है। आचार्य शुक्ल बीसलदेव रास के आधार पर रसाइन शब्द से रासो की उत्पत्ति मातते हैं। प्रथम इतिहास लेखक गार्सेद तासी ने राजसूय शब्द से रासौ की उत्पत्ति मानी है। डा० दशरथ ओझा रासौ शब्द को संस्कृत के शब्द से व्युत्पन्न न मानकर देशी भाषा का ही शब्द मानते हैं, जिसे बाद में विद्वानों ने संस्कृत से व्युत्पन्न मान लिया है। डॉ. मोतीलाल मेनारिया रासी की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-"चरितकाव्यों में रासौ ग्रन्थ मुख्य हैं । जिस काव्य ग्रन्थ में किसी राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध, वीरता आदि का विस्तृत वर्णन हो, उसे रासो कहते हैं। निष्कर्ष रूप में रासौ रसाइन शब्द से व्युत्पन्न माना जा सकता है। जैन-साहित्य के सन्दर्भ में ये लौकिक और शृंगारिक गीत रचनाएँ हैं, जिनमें जैनियों ने अनेक चरित काव्यों का निर्माण किया। ये रासौ काव्य शृंगार से आरम्भ होकर शान्तरस में परिणत होते हैं । यही जैन रासौ-काव्य का उद्देश्य है। इस परम्परा में लिखे हुए प्रमुख रासौ ग्रन्थ हैं-विक्रमकुमार रास (साधुकी ति), विक्रमसेन रास (उदयभानु) बेयरस्वामी रास (जयसागर) श्रेणिक राजा नो रास (देपाल), नलदवदंती रास (ऋषिवर्द्धन सूरि), शकुन्तला रास (धर्मसमुद्रगणि),१० तेतली मंत्री रास (सहजसुन्दर)," वस्तुपाल-तेजपाल रास (पार्श्वचंद्र सूरि),१२ चंदनबाला रास (विनय समुद्र), जिनपालित जिन १. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ३२ २. हिन्दी साहित्य का इतिहास ३. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास, पृ० ७० (द्वितीय संस्करण) ४. राजस्थान का पिंगल साहित्य, पृ० २४ (१९५२ ई.) ५. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ३४-३५ ६. वही, पृ० ११३ ७. वही, पृ० २७ ८. वही, पृ० ३७, भाग ३, पृ० ४४६, ४६६ ९. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ७५०, ७६८ १०. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ११६; भाग ३, पृ. ५४८ ११. वही, भाग १, पृ० १२०, भाग ३, पृ० ५५७ १२. वही, भाग १, पृ० १३६, भाग ३, पृ० ५८६ १३. राजस्थान भारती, भाग ५, अंक ६, जनवरी १९५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211834
Book TitleRajasthani Jain Sahitya ki Rup Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswawrup Mathur
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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