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________________ इन सभी साहित्यकारों ने यों तो जैन धर्म से सम्बन्धित रचनाओं का ही सृजन किया, जिनका प्रधान रस शान्त है, किन्तु गहराई के साथ अध्ययन के उपरान्त यह साहित्य जनोपयोगी भी सिद्ध होता है । जीवन से सम्बन्धित विविध विषय एवं सृजन की विविध विधाएँ इस साहित्य में उपलब्ध होती हैं । यद्यपि इस साहित्य में कलात्मकता का अभाव अवश्य है, किन्तु भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से समस्त राजस्थानी जैन साहित्य शोध के लिए व्यापक क्षेत्र प्रस्तुत करता है । इसके अतिरिक्त १३-१५वीं शताब्दी तक के अजैन राजस्थानी ग्रन्थ स्वन्त्र रूप से उपलब्ध नहीं है, उसकी पूर्ति भी राजस्थानी जैन साहित्य करता है। राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा ५१७ १७वीं शताब्दी राजस्थानी जैन साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाना चाहिए। इस समय तक गुजरात एवं राजस्थान की भाषाओं में भी काफी अन्तर आ चुका था । किन्तु जैन साधुओं के विहार दोनों प्रान्तों में होने से तथा उनकी पर्यटन प्रवृत्ति के कारण यह अन्तर लक्षित नहीं होता था। विविध काव्य रूप और विषय अब तक पूर्णतः विकसित हो चुके थे । श्री अगरचंद नाहटा ने इन काव्य रूपों अथवा विधाओं की संख्या निम्नलिखित ११७ शीर्षकों में बताई है -- (१) रास, (२) संधि, (३) चौपाई, (४) फागु, (५) धमाल, (६) विवाहलो, (७) धवल, (८) मंगल, (६) वेल, (१०) सलोक, (११) संवाद, (१२) वाद, (१३) झगड़ो, (१४) मातृका, (१५) बावनी, (१६) कछा, (१७) बारहमासा, (१८) चौमासा, (१९) कलश, ( २० ) पवाड़ा, (२१) चर्चरी (चांचरी), (२२) जन्माभिषेक, (२३) तीर्थमाला, (२४) परिपाटी, (२५) संघ वर्णन, (२६) ढाल, (२७) डालिया (२८) चौडालिया (२१) छडालिया, (३०) प्रबन्ध, (३१) चरित्र (३२) सम्बन्ध, (३३) आपान (३४) कथा (२५) सतक, (२६) महोत्तरी (३७) छत्तीसी (३८) सत्तरी (३९) बत्तीसी (४०) इक्कीसो (४१) इकतीसो (४२) चौबीसो (४३) बीसी (४४) अष्टक, (४५) स्तुति, (४६) स्तवन, (४७) स्तोत्र, (४८) गीत ( ४१ ) सज्झाय, (५०) चैत्यवंदन, (५१) देववन्दन, (५२) वनती, (५३) नमस्कार, (५४) प्रभाती, (५५) मंगल, (५६) साँझ, (५७) बधावा, (५८) गहूँली, (५१) हीयाली, (६०) गूढ़ा, (६१) गजल, (६२) लावणी, (६३) छंद, (६४) नीसाणी, (६५) नवरसो, (६६) प्रवहण, (६७) पारणो, (६८) बाहण, (६९) पट्टावली, (७०) गुर्वावली, (७१) हमचड़ी, ( ७२ ) हींच, (७३) माल-मालिका, (७४) नाममाला, (७५) रागमाला, (७६) कुलक, (७७) पूजा, (७८) गीता, ( :१) पट्टाभिषेक, ( ८० ) निर्वाण, ( ८१) संयम श्रीविवाह वर्णन, (२) भास (६३) पद, ( ८४) मंजरी (८५) रसावली, ( ८६) रसायन (८७) रसलहरी (८८) चन्द्रावला, (८) दीपक, (६०) प्रदीपिका, (६१) फुलड़ा, (१२) जोड़, (३) परिक्रम, (१४) कल्पलता, (६५) लेख, (१६) विरह, (१७) मंदड़ी, (६८) सत, (EE) प्रकाश, (१००) होरी, (१०१) तरंग, (१०२) तरंगिणी, (१०३) चौक, (१०४) हुंडी, (१०५) हरण, (१०६) विलास, (१०७) गरबा, (१०८) बोली, (१०६) अमृतध्वनि (११०) हालरियो, (१११) रसोई (११२) कड़ा, (११३) झूलणा, (११४) जकड़ी, (११५) दोहा (११६) कुंडलिया, (११७) छप्पय । 1 इन नामों में विवाह, स्तोत्र, वंदन, अभिषेक, आदि से सम्बन्धित नामों की पुनरावृत्ति हुई है। इसके अतिरिक्त विलास, रसायन, विरह, गरबा, शूलना प्रभूति काव्य-विधाएँ परित, कथा-काव्य एवं ऋतु-सम्बन्धी काव्य रूप में ही समाहित हो जाते हैं । अतः इन सभी काव्यों का मोटे रूप में इस प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है १. पद्य - (क) प्रबन्ध काव्य - (अ) कथा चरित काव्य – रस, आख्यान, चरित्र, कथा, विलास, चौपाई, संधि सम्बन्ध, प्रकाश, रूपक, विलास, गाथा इत्यादि । Jain Education International । (आ) ऋतुकाव्य फागु, धमाल, बारहसासा, चौमासा, धमासा, विरह, होरी, चौक, चर्चरी, झूलना इत्यादि । (इ) उत्सवकाव्य - विवाह, मंगल, मूँदड़ी, गरबा, फुलड़ा, हालरियो, धवल, जन्माभिषेक, बधावा । २. भारतीय विद्यामन्दिर, बीकानेर प्राचीन कार्यों की रूप परम्परा, पृ० २-३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211834
Book TitleRajasthani Jain Sahitya ki Rup Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswawrup Mathur
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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