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________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व १५७ थे। अतः निषाद को भीलों का आदि पुरुष मानना युक्ति संगत नहीं प्रतीत होता। कोल भाषा के कुछ शब्द वेदों की भाषा में भी मिलते हैं जिससे निषादों से पूर्व उनका वर्तमान होना पाया जाता है ३३ । इस आधार से भी सिद्ध है कि भील इन दोनों ( निषाद--कोल ) से सर्वथा भिन्न और स्वतन्त्र जाति थी और कोल-मुडा परिवार से अलग थी। भीली की प्राप्त मूल प्रवृत्तियां और मल तत्वों के आधार पर कोरकु, संथाली, मुडारी आदि जीवित भाषाओं के सम्बन्ध की खोज अपेक्षित है। राजस्थान में कोल-मुडा के कुछ अवशेष अवश्य मिलते हैं, जिससे यह तो मानना ही पड़ेगा कि ये लोग राजस्थान में आये अवश्य और कहीं कहीं अपने अवशेष भी छोड़े। पर इनका प्रभाव भीलों पर कितना पड़ा यह विचारणीय है। कहीं कहीं इनके अवशेष 'कोली' और 'प्रोड' जाति के रूप में मिलते हैं। कोली बांस का काम करते हैं और बीस बाँसा के गठ्ठ के लिये मुंडा शब्द 'कौड़ी' का प्रयोग करते हैं । इसी प्रकार की प्रवृत्ति 'प्रोड' में भी है, जो मिट्टी खोदने का काम करते हैं। यह कहने के लिये हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है कि राजस्थान की मुदडा (Lमुडारी) जाति कितनी प्राचीन है और उसकी मुन्डा के साथ कोई परम्परा का सम्बन्ध है। इन लोगों के प्रभाव और प्रसार क्षेत्र गंगातट, बंगाल तथा उडीसा तक ही विशेष रूप में रहे । द्रविड़ों का प्रभाव उत्तर-पश्चिम भारत तथा पश्चिम और दक्षिण में अधिक रहा । इस प्रभाव के दो परिणाम हुए। एक तो पूर्व से कोल मुन्डा तथा निषादों का राजस्थान पर अधिक प्रभाव नहीं फैल सका। दूसरा द्रविड़ ने भील पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इनमें पूजा की भावना एक समान थी ही; इस कारण इस मिश्रण से मील के 'लकुलीश' का रूप लकुटीश' हो गया और लकुटीश तथा लकुलीश एक ही देवता के दो नाम हुए । द्रविड़ों की शिवलिंग पूजा का भी प्रभाव फैला। २. आर्य-संपर्क और भाषा प्रवृत्तियां ____ पार्यों के आगमन और सम्पर्क के समय द्रविड़-प्रभुत्व काफी प्रबल और विस्तृत था, जो मोहंजोदड़ो 1 के उद्घाटन से ज्ञात होता है। उस समय पंजाब, राजस्थान, पश्चिम और उत्तर पश्चिम भारत, मध्य भारत और दक्षिण पर द्रविड़ों का प्रभाव था। भलों की भाषा अब तक सीमित होकर दब चुकी थी अथवा द्रविड़ में मिल चुकी थी। जो भी हो, भीलों की स्वतन्त्र भाषा, उनके विकास, राज्य और प्रभुत्व के अन्य अनेक अवशेषों के साथ द्रविड़ भाषा में अवशेष वर्तमान हैं। द्रविड़ आर्य सम्पर्क के कारण जिस भाषा का विकास हा उसमें अन्तिम ध्वनि पर बल देने के कारण शब्दों में व्यञ्जन द्वित्व की प्रवृत्ति का विकास हुआ जो आगे चलकर प्राकृत की प्रधान प्रवृत्ति हुई और अपभ्रंश के अन्त तक और फिर डिंगल में भी बनी रही। द्रविड भाषा-भाषी और राजस्थान की भीली तथा भीली प्रभावित क्षेत्रों में यह बल की प्रवृत्ति आज भी उच्चारण में सुन पड़ती है। संस्कृत के अनेक शब्द इसी प्रवृत्ति से प्राकृत में परिवर्तित हए । आर्य-द्रविड सम्पर्क से अनेक शब्द एक-दूसरे की भाषाओं में मिले । जो भीली द्रविड़ शब्द संस्कृत में गये उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं, ये वेद की भाषा में भी मिलते हैं। अरगु, अरणि (सूर्य, अग्नि, चकमक का पत्थर-देखो राज० अरण्या पत्थर अथवा प्रारणी गांव और वहां मिलने वाले इस पत्थर के आधार पर यह नाम), कपि, कार (लहार), कला, काल. कित ३३-देखो-'लोकवार्ता' दिसम्बर १९४४ पृ० १४६ सु० कु० चा 'द्रविड़' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211827
Book TitleRajasthan Bhasha Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaysinh Bhatnagar
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size3 MB
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