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योगीन्द्र युगप्रधान दादा श्रीजिनदत्त सूरि
[स्वर्गीय उपाध्याय मुनि श्री सुखसागरजी महाराज ] किसी भी राष्ट्र की वास्तविक सम्पत्ति है उस देश की की धर्मपत्नी वाहड़देवी की रत्नकुक्षि से सं० ११३२ में सन्तपरम्परा, जिसमें उसकी आत्मा साकार दीखती है। हुआ था। सुविहित मार्ग प्रकाशक श्रीजिनेश्वरसूरिजी के इसलिए संत को हम इस देश को परम्परा का जीवित विद्वान शिष्य धर्मदेव उपाध्याय की आज्ञानुवर्तिनी आर्याओं प्रतीक मान लें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। एक संत का वहाँ पर आगमन हुआ। शुभ लक्षण युक्त तेजस्वी जीवन का अन्तःपरीक्षण या विहंगावलोकन उस समय के बालक को देख पुलकित मन से माता को विशेष रूप से सम्पूर्ण मानवीय विकासात्मक परम्पराओं के तलस्पर्शी धर्मोपदेश देकर शासन-सेवा के प्रति उसमें वातावरण को अनुशीलन पर निर्भर है । आचार्य श्री जिनदत्तसूरि उपर्युक्त तैयार हुआ जानकर सूचित पुत्र को गुरु महाराज की सेवा परम्परा के एक ऐसे हो उदारचेता व्यक्तित्त्व-संपन्न महापुरुष में समर्पित करने की याचना की। जहाँ व्यक्ति-व्यक्ति के है। आचार्य श्री बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के रूप में जीवन व्यतीत करना है वहाँ स्वार्थ पनपता है । जहाँ महापुरुष थे। तत्कालिक संतों में साहित्यिकों एवं तत्व- व्यक्ति समष्टि के लिए जीवनोत्सर्ग करता है वहाँ वह अमर विदों में इनका स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है। हो जाता है। वाहड़देवी को अपने पुत्र को गुरु समर्पित
क्रान्ति उनके जीवन का मूलमन्त्र था। जिनदत्त- करते हुए तनिक भी दुःख नहीं हुआ अपितु हर्ष हुआ। उसने सूरिजी एक ऐसी विद्रोहात्मक परम्परा के उद्घोषक थे सोचा कि एक पुत्र यदि संस्कृति को विकासात्मक परम्परा जिन्होंने क्रान्ति के जयघोष द्वारा अतीत से प्रेरणा लेकर को बल देता है और सारे समाजकी सांस्कृतिक गौरव गरिमा भविष्य की शुद्ध परम्परा की नींव डाली। यह उनके की रक्षा व वृद्धि के लिए कठोरतम साधना स्वीकार करता प्रखर व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि तात्कालिक विकृति- है तो इस बात से बढ़कर और सौभाग्य की बात हो ही मूलक परम्पराओं का परिष्कार एवं सांस्कृतिक सूत्र में आबद्ध क्या सकती है ? कालान्तर से धर्मदेवोपाध्याय धवलकपुर कर जैनधर्म एवं मुनि समाज पर आयी हुई विपत्तियों का पधारे और इसे दीक्षित कर सोमचन्द्र नाम से अभिषिक्त कुशलतापूर्वक सामना किया। जैन-संरकृति के नवयुग किया। विकास के लक्ष न बाल्यकाल से ही अंकुरित होने प्रवर्तकों में ऐसे महापुरुष की गणना होती है। श्री लगते हैं । विद्याध्ययन के क्षेत्र में इनकी प्रतिभा का लोहा जिनदत्तसूरिजी सत्याश्रित-खरतरगच्छीय परम्परा के एक अध्यापक वर्ग भी मानते थे। इनकी बड़ी दीक्षा अशोकऐसे सुदृढ़ स्तंभ थे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व, साधना और चन्द्राचार्य के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुई जो कि जिनेश्वरसूरि प्रकाण्ड पाण्डित्य के बल पर समाज में जो श्रद्धा का स्थान के शिष्य सहदेवगणि के शिष्य थे। हरिसिंहाचार्य के प्राप्त किया है, वह आज भी अमर है।
श्रीचरणों में बैठकर आपने सैद्धान्तिक वाचना प्राप्त कर इनका जन्म गुजरात प्रान्तीय धवलकपुर (धोलका) कई मंत्रादि पुस्तकों के साथ ऐसा ऐतिहासिक प्रतीक नामक ऐतिहासिक नगर में हुँबड़ जातीय श्रेष्ठिवर्य वाछिग प्राप्त किया जो आचार्यवर्य के विद्याध्ययन में काम आता था।
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