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योगानुभूतियां | २५५
होती है, पार लगने पर नहीं, उसी प्रकार प्रात्मा को पाने पर किसी साधन की प्रावश्यकता नहीं रहती। परन्तु अभ्यास करने लिए हमें साधनों की आवश्यकता होती है और वे देव, गुरु व धर्म हैं।
धर्म क्या है ? धर्म किसी वस्तु का, पदार्थ का गुण है । अग्नि का गुण है उष्णता, पानी का गुण शीतलता है, उसी प्रकार धर्म प्रात्मा में है, प्रात्मा का धर्म है विवेक । ऐसा कोई प्राणी नहीं जो धर्मात्मा न हो। सभी प्राणियों में प्रात्मा है। अतः सभी में धर्म है, परन्तु वह उचित कामों में लगे, यह जरूरी है। धर्म का अर्थ है धारण करना । अपनी आत्मा को बुरे कामों से ऊपर उठाकर धारण करना धर्म है। अपने प्रात्मा के विवेक को जगाने का प्रयास हमें करना है।
हमारे पास मस्तिष्क है, जिसमें बुद्धि है, हृदय है जिसमें श्रद्धा का स्थान है व नाभि है जो संकल्प का स्थान है। इन तीनों के मिलने पर आत्म-जागरण होता है। अतः इन तीनों को मिलाने के लिए हमें ध्यान करना होगा, ध्यान करने के लिए बाहरी संसार को छोड़कर अन्तर्मुखी होना पड़ेगा। तभी तो हम तीनों को मिला पायेंगे और अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य प्रात्म-प्राप्ति को पा सकेंगे।
प्रातः ब्रह्मबेला में ४ बजे हमें उठना है। शारीरिक कार्यों से निवृत्त होकर प्रासन पर बैठना है। अपने देव व गुरु का स्मरण करना तथा उन्हें ३ बार प्रणाम करना है व प्रार्थना करना है । गुरु व देव का स्मरण इसलिए करना है कि हमारी श्रद्धा को स्थायित्व प्राप्त हो, क्योंकि ये उसके साधन हैं। फिर प्रणाम तीन बार इसलिए करना है कि उसमें तीन गुण हैं-ज्ञान, दर्शन व चारित्र। इन तीन रत्नों को प्रणाम करना है, उसके प्रति विनम्रता प्रकट करनी है। प्रणाम के बाद प्रार्थना करनी है। हमारी प्रार्थना में याचना नहीं होनी चाहिए, याचना रहित प्रार्थना करना है, जैसेहे प्रभु
हमें प्रसिद्धि नहीं, सिद्धि चाहिए। हमें अधिकार नहीं, सेवाभाव चाहिए। हमें दया नहीं, प्रेम चाहिए। हमें आश्रय नहीं, प्रेरणा चाहिए।
हमें दान नहीं, पुरुषार्थ चाहिए। प्रार्थना करते समय हम पांच मुद्राओं (प्रार्थनामुद्रा, योगमुद्रा, ज्योति या दीपमुद्रा, जिनमुद्रा व प्रानन्दमुद्रा) में से प्रार्थनामुद्रा बतायेंगे। जिसमें दोनों हाथों की हथेलियां नमस्कार की तरह चिपकी नहीं रहेंगी, थोड़ी पोली रहेंगी। जिस प्रकार कमल पर सूर्य से सौरभ मिलता है उसी प्रकार ईश्वररूपी सूर्य से हमें सौरभ मिले, इस हेतु यह मुद्रा बनानी है।
प्रार्थना के बाद योगमुद्रा में बैठना है। योगमुद्रा याने तर्जनी व अंगूठा मिला हुआ तथा शेष तीनों अंगुलियां सीधी चिपकी हुई रखना हैं । इन तीन अंगुलियों के प्राशय हैं
(१) रजोगुण, तमोगुण व सत्वगुण (२) आधि, व्याधि, उपाधि । (३) हेय, ज्ञेय व उपादेय (४) मन, काया, वचन ।
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