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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ७९
"जो श्रुत-शास्त्र द्वारा केवल शुद्ध प्रात्मा को जान लेता है, लोकप्रदीपकर-जगत को ज्योति प्रदान करने वाले ऋषि, द्रष्टा या ज्ञानी उसे श्रुतकेवली, शास्त्रों का संपूर्ण वेत्ता कहते हैं।
___ "जो समग्र श्रुतज्ञान को जानता है, उसे जिन श्रुतकेवली कहते हैं । समस्त श्रुतज्ञान अन्ततः मात्मा के ज्ञान में ही समाविष्ट होता है, इसलिए एक प्रात्मा को जानने वाला श्रुतकेवली है।''
प्राचार्य कुंदकुंद ने बहुत गहरी बात कही है। एक प्रात्मा को जान लेना कोई साधारण बात नहीं है। एक प्रात्मा को जानने वाला उस प्रात्मज्ञान के परिपार्श्व में क्या बहत कुछ, सब कुछ नहीं जान लेता? इसीलिए तो प्राचारांग सूत्र में कहा है
"जो एक को जानता है, वह सब को जानता है, जो सबको जानता है, वह एक को जानता है।"
प्राचार्य हेमचन्द्र की "अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका" की स्याद्वाद, मंजरी नामक व्याख्या के रचनाकार प्राचार्य मल्लिषेण प्रथम श्लोक की व्याख्या में प्रसंगोपात्ततया लिखते हैं
"अनन्त विज्ञान के बिना किसी एक भी पदार्थ का यथावत् परिज्ञान नहीं हो सकता।"
वहां उन्होंने प्राचारांग का उक्त वचन उद्धृत किया है और उसे विशेष रूप से स्पष्ट किया है
"जिसने एक भाव को सर्वथा-सब प्रकार से सम्पूर्ण रूप में देख लिया, उसने सभी भाव सर्वथा देख लिए। जिसने सब भाव सर्वथा देख लिए, उसने एक भाव सर्वथा देख लिया।"५
इसका सारांश यह है कि किसी एक तत्त्व को सम्पूर्ण रूप में जानने का अधिकारी वही कहा जा सकता है, जो उसके अतिरिक्त अन्य तत्त्वों को भी जानता है। उन्हें जाने बिना उस एक तत्त्व की अनेक अपेक्षाओं से जुड़ा हुअा ज्ञान अप्राप्त रह जाता है।
१. जो हि सुदेणभिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं ।
तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।। जो सुयणाणं सव्वं जाणह सुयकेवलि तमाहु जिणा ।
णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ॥ -समयसार १.९-१० २. जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ से एग जाणइ ॥ -प्राचारांग के सूक्त ६२ ३. अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्य सिद्धान्तममर्त्य पूज्यम् ।
श्रीवर्धमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयंभवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ -अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, ४. विज्ञानानन्त्यं विना एकस्याप्यर्थस्य यथावत्परिज्ञानाभावात् ।
-स्याद्वादमंजरी ५.५८, सं. ए. बी. ध्रव . ५. एको भावः सर्वथा येन दृष्टः,
सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावाः सर्वथा तेन दृष्टः ।। -स्याद्वादमंजरी पृ. ५८, सं ए. बी. ध्रव ।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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