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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ८९ का स्वभाव है, उसे अधिगत हो जाता है। क्योंकि उसमें बाधा उपस्थित करने वाली योगप्रवृत्ति बची नहीं रहती। यह योगसंन्यास योगसाधना के अन्तिम प्रकर्ष या चरम ध्येय का अधिगम है।
योग-दृष्टियां
जीवन के समग्र व्यापार एवं कार्य-कलाप का मूल आधार दृष्टि (vision) है । दृष्टि सत्त्व, रजस्, तमस् प्रादि जिस ओर मुड़ी होगी, जीवन-प्रवाह उसी ओर स्वतः बढ़ चलेगा। दृष्टि-परिष्कार में साधना का दैहिक, वाचिक, मानसिक सारा विधि-क्रम अन्तर्गभित हो जाता है । प्राचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा आविष्कृत पाठ योग-दृष्टियां इसी का दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक विस्तार हैं।
पूर्व-णित इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग का अपना एक विशेष क्रम एवं रूप है और योग-दष्टियों का अपना प्रकार है। इसलिए इन दोनों का परस्पर सीधा सम्बन्ध तो नहीं है पर सूक्ष्मता से विचार करें तो तात्त्विक दृष्ट्या परस्पर सम्बद्धता है। इसीलिए प्राचार्य ने इस सम्बन्ध में कहा है
"इन तीनों-इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग का प्राश्रय न लिये हुए पर विशेषरूप से इनसे उत्पन्न पाठ योग-दष्टियों का यहां सामान्यरूप से वर्णन किया जा रहा है।"
इच्छा-योग आदि का आश्रय न लेने की जो बात कही गई है, उसका आशय यह है कि इन योगों के भेद-प्रभेद या शाखा-प्रशाखा के रूप में इन दृष्टियों का विकास नहीं हुआ है। पर उक्त तीनों योगों में अपेक्षा-भेद से इन दृष्टियों का अन्तर्भाव हो जाता है। वहाँ प्रतिपादित तथ्य इन दृष्टियों में सर्वथा मौलिक, नवीन एवं हृदयस्पर्शी सरणि द्वारा सुन्दर रूप में व्याख्यात किया गया है, जो प्राचार्य हरिभद्र के अद्भुत वैदुष्य, चिन्तन तथा साधनाप्रसूत अनुभूति-रस का द्योतक है।
तीनों योग और पाठ दृष्टियों की पारस्परिक सम्बद्धता के ही कारण प्राचार्य ने दृष्टियों का विवेचन करने से पूर्व इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग का निरूपण किया है। उन्होंने एक प्रकार से इन्हें योग-दृष्टियों की पृष्ठभूमि या आधार माना । पृष्ठभूमि का बोध हो जाने पर उस पर खड़ी की जाने वाली विशाल अट्टालिका का सरलता से परिज्ञान हो सकता है। ओघ-दृष्टि __प्राचार्य ने सबसे पहले दृष्टि के दो भेद किये-अोघ-दृष्टि और योग-दृष्टि । प्रोघदृष्टि की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है
"मेघाच्छन्न रात्रि, मेघरहित रात्रि, मेघयुक्त दिवस एवं मेघरहित दिवस में ग्रह-भूत-प्रेत १. एतत् त्रयमनाश्रित्य विशेषेणैतदुद्भवाः ।।
योगदृष्टय उच्यन्ते अष्टौ सामान्यतस्तु ताः ।। -योगदृष्टिसमुच्चय १२
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