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योग : स्वरूप और साधना
योग : स्वरूप और साधना
एक सर्वांगीण विवेचन
भारतीय दर्शन में 'योग' शब्द का प्रयोग 'साधना - विशेष' के अर्थ में होता है और यह साधना किसी धर्म-सम्प्रदाय के कर्मकाण्ड की तरह नहीं होती; भाँति प्रयोगात्मक होती है। दर्शनशास्त्र या धर्मशास्त्र की तरह सिद्धान्त प्रतिपादित करना योग का कार्य नहीं है, इसमें तो दीर्घकाल तक धैर्यपूर्वक प्रयोग करके निष्कर्ष निकालने पड़ते हैं।
[] डा० ए० डी० बतरा एम. ए., पी-एच.डी., डी. वाय. पी. प्रयुक्त है। मूलतः 'योगी' साधक ही बल्कि आधुनिक युग के विज्ञान की
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साधकों के प्रयोगात्मक वर्गीकरण के कारण ही सम्भवतः योग में विभिन्न प्रकार के प्रवाह प्रचलित हुए हैं; जैसे मंत्रयोग, भक्तियोग, लययोग शिवयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग मंडलियोग इत्यादि इन योगों से सम्बन्धित कुछ साहित्य भी आधुनिक युग में प्राप्त होता है। यहाँ हमारा विवेचन, पतंजलि के योगसूत्र; हठयोग सम्बन्धी साहित्य, और योग उपनिषद् में व्यक्त विचारों तक ही सीमित है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में योग की प्राचीन परम्परा उपलब्ध है । परन्तु यहाँ पर योग का ऐतिहासिक विकास प्रस्तुत करना हमारा लक्ष्य नहीं है । हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि योग को प्रयोग द्वारा ही समझना है तो कोई भी उपलब्ध साहित्य सहायक हो सकता है, उसके ऐतिहासिक विकास - विवेचन की आवश्यकता नहीं ।
प्रायोगिक दृष्टि से, योग को सर्वसाधारण तक पहुँचाने का प्रयत्न सम्भवतः कभी नहीं हुआ । योग अभ्यासी साधक अपने गुरु के सान्निध्य में रहकर, प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में साधना करते रहे। प्राचीन भारत की समाज रचना के अनुसार यह 'साधना' उचित थी। परन्तु आज अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से प्रभावित भारतीय समाज रचना के कारण, कभी-कभी योग और योग-साधक को समझने में भ्रम भी उत्पन्न हुए हैं। योग साहित्य की क्लिष्ट भाषा प्रयोगकर्ताओं की अनुपलब्धि और कुछ लोगों द्वारा योग को सर्वसाधारण तक पहुँचाने का प्रयत्न आदि कारणों ने भी योग सम्बन्धी कुछ भ्रम खड़े कर दिये हैं । किन्तु भ्रमात्मक धारणाओं के होते हुए भी, भारत में और अन्य देशों में भी, योग सम्बन्धी साहित्य; योग का अभ्यास करने वाले साधक और योग पर प्रयोग करने वाले वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । यह एक अलग बात है कि इनमें से सही दिशा में काम करने वाले साधक अथवा प्रयोगकर्ता कितने हैं । अध्यात्म और रहस्यवाद के साथ योग का सम्बन्ध स्थापित करना भी आधुनिक युग की एक नयी प्रवृत्ति
है । इसके कारण योग सम्बन्धी कुछ धारणायें तो स्पष्ट हुई हैं परन्तु कुछ और नये भ्रम खड़े कर दिये गये हैं । वास्तव में योग को प्रायोगिक अभ्यास के द्वारा न समझते हुए, सिर्फ भाषा साहित्य के द्वारा समझने का जब भी प्रयत्न होगा, तब ऐसे भ्रम खड़े होना स्वाभाविक है। योग सम्बन्धी अधिकृत साहित्य बहुत सीमित है; परन्तु टीकायें, भाष्य और व्यावसायिक लेखकों द्वारा लिखित सस्ती पुस्तकों की कमी नहीं है। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की 'तुलनात्मक अध्ययन' प्रवृत्ति के अनुकरण पर योग- साहित्य का भी तुलनात्मक अध्ययन प्रकाश में आया है। इस प्रवृत्ति के अनुसार, योग तथा मनोविज्ञान योग-मनोविश्लेषण योग और यौगिक चिकित्सा पद्धति योग तथा शरीर विचांति योग और आयुर्वेद योग और गीता; योग और महाभारत, इत्यादि अनेक सीमित दृष्टिकोणों से योग साहित्य का अध्ययन प्रस्तुत हुआ है और हो रहा है । परिणामतः योग- साहित्य का विकास तो हुआ है परन्तु योग-साधना करने वाले सच्चे अभ्यासिकों की संख्या अत्यल्प है। योग साहित्य की नयी अध्ययन शैली की आलोचना करना हमारा उद्देश्य नहीं है, परन्तु सच्चाई यह है कि साहित्य से ही मनःशान्ति प्राप्त करने की भावना 'योग अभ्यास' के लिए घातक सिद्ध हुई है ।
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