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________________ १५८ कु० अरुणा आनन्द को प्रदान किया गया है अभव्य' को नहीं । जिस प्रकार मूंग में कोई दाना ऐसा होता है जिसे 'कोर इस 'कोरडु' का ऐसा स्वभाव है कि चाहे कितना ही प्रयत्न कर लिया जाए, परन्तु वह पकता नहीं है । इसी प्रकार अभव्य जीव में भी मोक्ष प्राप्त करने योग्य परिणामों की सम्भावना नहीं होती। सभी मनुष्य एक जैसे स्वभाव के नहीं होते। जिन मनुष्यों में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता विद्यमान होती है उनमें कुछ विशिष्ट प्रकार के गुण अपेक्षित होते हैं । गीता में कहा गया है कि सात्त्विक गुणों से अलंकृत व्यक्ति ही मोक्ष साधना में सफल हो सकते हैं । अध्यात्म-साधना की पात्रता प्राप्त करने के लिए वहाँ तीव्र वैराग्य, श्रद्धा, आत्मतत्त्व तथा मोक्ष प्राप्ति की जिज्ञासा आदि गुणों का होना अनिवार्य बताया गया है । पातंजलयोगसूत्र में भी योग-साधना का सर्वप्रथम ( उपाय प्रत्यय) अधिकारी बनने के लिए मनुष्य में श्रद्धा ( योग-साधना के प्रति आस्तिकता व सम्मान का भाव ) वीर्य, साधना के प्रति अभि. रुचि एवं उत्साह, स्मृति ( अपने लक्ष्य एवं गन्तव्य मार्ग का अविस्मरण) समाधि (एकाग्रता की सामर्थ्य) और प्रज्ञा (हेय और उपादेय के विवेक से युक्त बुद्धि) आदि गुण अपेक्षित बताए गए हैं। जैन परम्परा में भी अध्यात्म साधना के अधिकारी भव्य जीवों में श्रद्धा, धर्मश्रवण की जिज्ञासा एवं संयम पुरुषार्थ की क्षमता का होना अनिवार्य समझा गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त गुण सामान्य व्यक्ति को लक्ष्य करके निरूपित किये गये हैं । जो व्यक्ति पूर्व जन्म में साधना की विशिष्ट कोटि में पहुँच जाने पर भी परम लक्ष्य १. (क) अश्रद्दधाना ये धर्मं जिनप्रोक्तं कदाचन । अलब्धतत्त्वविज्ञाना मिथ्याज्ञानपरायणाः ।। अनाद्यनिधना सर्वे मग्नाः संसारसागरे । अभव्यास्ते विनिर्दिष्टा अन्धपाषाणसन्निभाः ।। वराङ् चरित २६-८-९ सम्यग्दर्शनादिभिर्व्यक्तिर्यस्य भविष्यतीति भव्यः यस्य तु न भविष्यति सोऽभव्यः । स० सि. ६।६. अभव्याः अनादि पारिणामिका भव्यभावयुक्ता: नन्दीसूत्र हरिभद्रवृत्ति, पृ० ११४ ) विवरीया उ अभव्वा न कयाइ भवन्नवस्स ते पारं। गच्छिसु जंति व तहा तत्तु च्चिय भावओ नवरं ।। -श्रावकप्रज्ञप्ति ६७. २. (क) निर्वाण पुरस्कृतो भव्यः । तद्विपरीतोऽभव्यः । -धवलापुस्तक पृ० १५०-१५१ (ख) भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वमनादिपारिणामिको भावः । ललितविस्तरा, पृ० २४. (ग) पञ्चसूत्र हरिभद्रवृति पृ० ३, धर्मबिन्दु, मुनिचन्द्रवृति २०६८ ३. ऊवं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्तिं राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।। गीता १४॥१८ ४. वही ६।३६ ५. गोम्मटसार जीवकाण्ड ६५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211790
Book TitleYoga ka Adhikari Haribhadriya yog ke Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherZ_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf
Publication Year1994
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size532 KB
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