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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
योग और मन
सुरेश मुनि शास्त्री
मन ही मनुष्य है
मनुष्य कहाँ रहता है ? निवास स्थान कहाँ है मनुष्य का ? यह एक चिरन्तन प्रश्न है। उत्तर में कहना होगा : मनुष्य अन्यत्र कहीं नहीं रहता, मनुष्य रहता है अपने मन में । बुद्ध का वचन है : भिक्षुओ, मनुष्य मन में रहता है। जैन-परम्परा के मनीषी आचार्यों का स्पष्ट आघोष है—जो मन में सोता है, रहता है, वह मनुष्य है।
वस्तुतः मनुष्य है ही वह, जिसके पास मन है। मनुष्य का अर्थ है मन वाला-विशिष्ट मन वाला। विशिष्ट मन से ही तो मनन होता है, जिसके आधार पर मनुष्य को मनुष्य कहलाने का अधिकार प्राप्त होता है। "दूरगामी परिणाम को सोच-समझ कर कार्य करने वाले ही मनुष्य हैं।" प्राचीन ऋषि का यह संकेत इसी दिशा में है।
मनुष्य इसलिए मनुष्य नहीं कहलाता कि वह मनु का पुत्र है। मनुष्य इसलिए मनुष्य कहलाता है कि वह अपना मानस-पुत्र है-अपने ही मन का बेटा है । मनुष्य मन की उपज है। मन से ही मनुष्य का सृजन होता है। मन ही मनुष्य का ब्रह्मा है, सिरजनहार है।"
मन मनुष्य-जीवन का एक ऐसा मध्य-बिन्दु है, जिसे केन्द्र बनाकर मनुष्य का समग्र जीवन-चक्र उसके इर्दगिर्द घूमता है। मनुष्य-जीवन का वास्तविक आकलन एवं मूल्यांकन मन के द्वारा ही होता है-मनुष्य-जीवन का यह केन्द्रीय तथ्य है । मन और जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध-सूत्र को काल के किसी भी आयाम में विच्छिन्न नहीं किया जा सकता । जैसा मन होता है वैसा ही मनुष्य बन जाता है, यह एक सनातन सत्य है। "जैसा मन, वैसा जीवन"-मन और जीवन का यह पारस्परिक सहयोग एक सजीव भाष्य है। मन मैला तो जीवन मैला, मन उजला तो जीवन उजला । मन अशांत तो जीवन अशांत, मन शांत तो जीवन शांत । मन अस्थिर तो जीवन अस्थिर, मन स्थिर तो जीवन स्थिर । मन दुःखी तो जीवन दुःखी, मन सुखी तो जीवन सुखी । मन असंयत तो जीवन असंयत, मन संयत तो जीवन संयत । मन अनियन्त्रित तो जीवन अनियन्त्रित, मन नियन्त्रित तो जीवन नियन्त्रित । मन आसक्त तो जीवन आसक्त, मन विरक्त तो जीवन विरक्त । मन रागी तो जीवन रागी, मन वीतरागी तो जीवन वीतरागी। मन रोगी तो जीवन रोगी, मन नीरोगी तो जीवन नीरोगी । मन भोगी तो जीवन भोगी, मन योगी तो जीवन योगी।
सच तो यह है कि मन ही मनुष्य है। मन के अतिरिक्त मनुष्य अन्य कुछ भी नहीं है। मनुष्य के जीवन की रूप-रचना करने वाला मन मनुष्य के भीतर ही बैठा है; जो उसके जीवन की विविध रूप-रचना कर रहा है । जैसा मन का रंग, वैसा बाह्य जीवन का ढंग । मनुष्य के उत्थान-पतन तथा ह्रास-विकास का राजप्रासाद मन की आधारशिला पर ही स्थित है। मन एक विचित्र पहेली है।
स्पष्ट है कि मन मनुष्य के लिए एक विचित्र पहेली है। मन मनुष्य का गौरव भी है और मन मनुष्य का रौरव भी है। मन मनुष्य का मान-महत्व भी है और मन मनुष्य का अवमूल्यन-पतन भी है। मन मनुष्य के लिए वरदान भी है और मन मनुष्य के लिए अभिशाप भी है। मन मनुष्य के लिए अमृत भी है और मन मनुष्य के लिए हलाहल विष भी है। मन मनुष्य के लिए जीवन भी है और मन ही मनुष्य के लिए मृत्यु भी है। मन मनुष्य के लिए सुख का मूल बिन्दु भी है और मन ही मनुष्य के लिए मर्मान्तक पीड़ा भी है। मन मनुष्य के लिए दुःख का प्रबलतम कारण भी है और मन से ही मनुष्य को शाश्वत सुख उपलब्ध होता है। मन के कारण ही मनुष्य सर्वोपरि है, सब प्राणियों में श्रेष्ठ एवं बरिष्ठ है, सबसे ऊँचे सिंहासन पर अधिष्ठित है और मन के ही कारण मनुष्य पशुतर है—पशु से भी गया-बीता
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