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________________ $44 TL 60 TOTTES ET TA OS DE TO TE STESSTTTTESTS LOST ** ** C*Te ..............................+++ युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज : व्यक्तित्व और कृतित्व भारतीय संस्कृति विश्व की एक महान् संस्कृति है जो हजारों वर्षों से गंगा के विशाल प्रवाह की तरह जनजन के अन्तर्मानस में प्रवाहित हो रही है; मन और मस्तिष्क का परिमार्जन कर रही है। यह संस्कृति मूलतः दो संस्कृतियों का समन्वित रूप है-एक वैदिक संस्कृति और दूसरी श्रमण संस्कृति । वैदिक संस्कृति में बाह्यशुचिता, सम्पन्नता एवं समृद्धि को प्रोत्साहन दिया गया है, तो श्रमण संस्कृति में अन्तरंग पवित्रता, आत्मगुणों का विकास एवं आत्मलीनता पर विशेष बल दिया गया है। वैदिक संस्कृति का मूल प्रकृति है तो श्रमण संस्कृति का मूल स्वात्मा है। प्रथम बाह्य है तो दूसरी आन्तर है । प्रकृति के विविध पहलुओं, घटनाओं को निहारकर समय-समय पर ऋषियों ने जो कल्पनाएँ कीं उनमें से ब्रह्म का स्वरूप प्रस्फुटित हुआ है किन्तु श्रमण संस्कृति का आत्मचेतना की ओर अधिक झुकाव रहा है । उसका स्पष्ट मन्तव्य है - प्रत्येक प्राणी में एक चिन्मय ज्योति छिपी हुई है चाहे कीड़ा हो, चाहे कुजर, पशु हो या मानव, नरक का जीव हो या स्वर्ग का अधीश्वर देवराज इन्द्र हो, सभी में वह अखण्ड ज्योति जगमगा रही है। किसी ने उस ज्योति का विकास किया है तो किसी में वह ज्योति राख से आच्छादित अग्नि के समान सुप्त है । वैदिक संस्कृति में परतन्त्रता, ईश्वरालम्बन और क्रियाकाण्ड की प्रमुखता रही तो श्रमण संस्कृति में स्वातन्त्र्य, स्वावलम्बन और विशुद्ध आत्मा की सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास रहा। श्रमण संस्कृति का मूल शब्द "समण" है जिसका संस्कृत रूपान्तर है श्रमण, शमन और समन । श्रमण शब्द श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है परिश्रम करना, उद्योग करना। इस संस्कृति में तथाकथित ईश्वर मुक्तिदाता नहीं है, यह सृष्टि का कर्ता-धर्ता और हर्ता नहीं है। इस संस्कृति की मान्यतानुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम और सत्कार्यों से ईश्वर बन सकता है। वह ईश्वर के प्रसाद पर निर्भर नहीं, किन्तु आत्म-विकास से स्वयं उस चरम स्थिति को प्राप्त कर सकता है । शमन का अर्थ शान्त करना है। श्रमण अपनी चित्तप्रवृत्तियों के विकारभावों का शमन करता है। उसकी मूल साधना है आत्म-चिन्तन और भेद-विज्ञान । चारों वर्ण वाले समान रूप से आत्म-चिन्तन करने के अधिकारी हैं और मुक्ति को प्राप्त करने के भी साधक शत्रु-मित्र, बन्धु बान्धव, सुख-दु:ख, प्रशंसा और निन्दा, जीवन और मरण जैसे विषयों में भी समत्व भावना रखता है ।" समन शब्द का अर्थ समानता है। श्रमण संस्कृति में सभी जीव समान हैं, उसमें धन, जन, परिजन की दृष्टि से कोई श्रेष्ठ और कनिष्ठ नहीं है । आत्म भाव में स्थिर रहकर साधना करना समानता है । Jain Education International इस तरह श्रमण संस्कृति का मूल श्रम, शम और सम है । ये तीनों सिद्धान्त विशुद्ध मानवता पर आधारित हैं। इसमें वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, उपनिवेशवाद आदि असमानता वाले तत्व नहीं हैं । श्रमण संस्कृति ने आत्म-विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आत्मा की अन्तरंग पवित्रता, निर्मलता और उसके गुणों का विकास करने में श्रमण संस्कृति ने उदात्त चिन्तन प्रस्तुत किया है। आत्मा की अनन्त ज्ञान शक्तियाँ, अनन्त विभूतियाँ और अनन्त सुखमय स्वरूप दशा के विकास में जागरूक ही नहीं प्रयत्नशील भी रही हैं। आत्म- गुणों का चरम विकास ही इस संस्कृति का मूल ध्येय रहा है। भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक असंख्य साधकों ने आत्म-साधना के महान पथ पर कदम बढ़ाये हैं, आत्म जागरण और आत्म विकास तथा आत्म- लक्ष्य तक पहुँचते रहे हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211777
Book TitleYugpravarttaka Krantikari Acharya Amarsinhji Vyaktitva aur krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size2 MB
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